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________________ प्रस्तावना संकेत लेकर उन्हें वाद का रूप प्रदान किया है । उसी का अनुसरण कर श्रावश्यक नियुक्ति तथा कल्पसूत्र के टीकाकारों ने भी उस प्रसंग पर वाद की रचना की है । यह समस्त वाद प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया ही गया है अतः उसका विशेष विवेचन यहाँ अनावश्यक है । गणधरों के जीवन के सम्बन्ध में जो नई बातें बाद के साहित्य में उपलब्ध होती हैं, उनका निर्देश कर यह प्रकरण पूरा करूँगा । आचार्य हेमचन्द्र ने उस समय में सुख्यात कथानुयोग का दोहन कर त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र लिखा था । अतः उसमें वर्णित तथ्यों के आधार पर ही यहाँ कुछ लिखना उचित है । उसमें भी इन्द्रभूति गौतम के प्रतिरिक्त अन्य गणधरों के विषय में कोई विशेष बात दृग्गोचर नहीं होती, अतः इन्द्रभूति गौतम के जीवन की वर्णनीय बातों का ही यहाँ प्रतिपादन किया जाता है । 69 छद्मावस्था में सुदंष्ट्र नामक नागकुमार ने भगवान् को उपसर्ग किया था । वह वहाँ से मरकर एक किसान बना था । उसे सुलभ-बोधि जीव देखकर भगवान् ने गौतम इन्द्रभूति को उस किसान के पास उपदेश देने के लिए भेजा । गौतम ने उसे उपदेश देकर दीक्षा दी । तत्पश्चात् गौतम अपने गुरु भगवान् महावीर के अतिशयों का वर्णन करके उसे उनके पास ले जाने लगे । भगवान् महावीर को देखते ही किसान के मन में पूर्वभव के वर के कारण उनके प्रति घृणा उत्पन्न हुई और वह यह कहकर चलता बना कि “यदि यही तुम्हारे गुरु हैं, तो मुझे आपसे कोई प्रयोजन नहीं ।" इसका कारण पूछने पर भगवान् ने गौतम को अपने पूर्वभव का सम्बन्ध बताते हुए कहा, “मैंने त्रिपृष्ठ के भव में जिस सिंह को मारा था, उसी का जीव यह किसान है । उस समय क्रोध से उद्दीप्त उस सिंह को तुमने मेरे सारथि के रूप में आश्वासन दिया था, इसी से वह सिंह तब से तुम्हारे प्रति स्नेहशील और मेरे प्रति द्वेष-युक्त बना ।" पर्व 10, सर्ग 9. इस घटना का मूल मालूम करना हो तो वह भगवती सूत्र में मिल जाता है । वहाँ भगवान् ने गौतम से स्वयं कहा है कि हमारा सम्बन्ध कोई नया नहीं, किन्तु पूर्वजन्म से चला आता है । सम्भव है कि इसे या अन्य किसी ऐसे उद्गार को आधार बनाकर कथाकारों ने महावीर श्रौर गौतम का उक्त कथा में निर्दिष्ट सम्बन्ध जोड़ा हो । 1 इसी प्रकार प्रभयदेव प्रादि टीकाकार भगवती के इसी प्रसंग को गौतम के लिए आश्वासन रूप समझते हैं । उसके अनुसन्धान में जिस कथा की रचना की गई है वह यह हैगौतम ने पृष्ठ-चम्पा के गागली राजा को उसके माता-पिता के साथ दीक्षा दी थी और वे सब भगवान् को वन्दना करने के लिए पृष्ठ-चम्पा से चम्पा जा रहे थे । इसी अवधि में उन्हें केवल - ज्ञान की प्राप्ति हुई, किन्तु गौतम को इस बात का पता न था, अतः जब भगवान् की प्रदक्षिणा करके वे केवली परिषद् में बैठने लगे तब गौतम कहने लगे, "प्रभु को वन्दना तो करो ।" यह सुनकर भगवान् ने गौतम से कहा, "तुमने केवली की प्राशातना की है", तब गौतम ने प्रायश्चित्त किया; किन्तु उनके मन में दुःख हुआ कि जब मेरे शिष्यों को केवलज्ञान हो जाता है, तो मुझे क्यों नहीं होता' ? त्रिषष्टि० पर्व 10, सर्ग 9 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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