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________________ 68 गणधरवाद भगवान् के गणधर ग्यारह थे, परन्तु गण नव ही थे, यह बात कल्पसूत्र में निर्दिष्ट है1 और इसका वहाँ स्पष्टीकरण भी किया गया है । गण-भेद का प्राधार वाचना-भेद है । अर्थ का अभेद होने पर भी शब्द-भेद के कारण वाचना में भेद पड़ता है। भगवान् के उपदेश को प्राप्त कर, गणधरों ने जिन अागमों की रचना की, उनमें शब्द-भेद के कारण नौ वाचनाएँ थीं। एक ही प्रकार की वाचना लेने वाला साधु-समुदाय गण कहलाता है । ऐसे गण नौ थे, अत: 11 गणधर होने पर भी गण 9 ही थे। अन्तिम चार गणधरों में प्रार्थ अकम्पित और आर्य अचलभ्रात दोनों की मिलकर 600 शिष्यों की एक ही वाचना थी, अत: उनके दो गणों के स्थान पर एक ही गण गिना जाता जाता है । इसी प्रकार आर्य मेतार्य और प्रभास दोनों की 600 शिष्यों की एक ही वाचना थी, अतः उन दो गणों के स्थान पर भी एक ही गण गिना जाता है; अतः ग्ययरह गणधरों के ग्यारह गणों के स्थान पर नव गण गिने गये हैं । __आवश्यक नियुक्ति में भगवान के साथ इन्द्रभूति आदि के प्रथम परिचय का वर्णन है । उसमें लिखा है कि जिनवरेन्द्र की देवकृत महिमा सुनकर, अभिमानी इन्द्रभूति मात्सर्य युक्त होकर भगवान् के पास पाया । जाति, जरा, मरण से रहित जिन भगवान् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी थे, अतः उन्होंने उसे उसके नाम और गोत्र से बुलाया और कहा कि तू वेद-पदों का यथार्थ अर्थ नहीं जानता, इसीलिए तुझे यह संशय है कि जीव है अथवा नहीं । वेद-पदों का वास्तविक अर्थ तो यह है । जब उसका संशय दूर हो गया तब उसने अपने 500 शिष्यों सहित दीक्षा ले ली। उसे दीक्षित हुये सुनकर अग्निभूति भी मात्सर्यवश होकर और यह विचार कर कि भगवान् के पास जाकर इन्द्रभूति को वापस ले पान. भगवान् के पास आया। उसे भी भगवान ने उसके मन में स्थित कर्म-विषयक सन्देह बता दिया । वह भी अपनी शिष्य मण्डली सहित दीक्षित हो गया। शेष गणधर मात्सर्य से नहा, अपितु भगवान् के महत्व को समझकर उनके पास क्रमशः उनकी वन्दना और सेवा करने के उद्देश्य से आते हैं और सभी दीक्षा ग्रहण करते हैं । यह सामान्य उल्लेख निर्यवितकार ने किया है। इन सामान्य तथ्यों के आधार पर कल्पसूत्र के अनेक टीकाकारों ने इस प्रसंग का आलंकारिक भाषा में विविध रीति से वर्णन किया है, किन्तु भाषा के अलंकार हटा दें तो उनमें विशेष नई बातें ज्ञात नहीं होती। विशेषावश्यक भाष्यकार ने गणधरों की शंकाओं से 1. कल्पसूत्र (कल्पलता) पृ० 215 2. , , " 3. श्री विजयराजेन्द्रसूरि ने स्मृति-भ्रश से कल्पसूत्रार्थ-प्रबोधिनी में अपित और अचल भ्राता की माता एक तथा पिता भिन्न बताकर गोत्र-भेद लिखा है, वस्तुतः यह विधान मंडिक-मौर्य पुत्र के लिए होना चाहिये । प्रा० नि० हरि० टीका गाथा 648 देखें। 4. प्रा०नि० गा० 589-641. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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