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________________ भाषान्तरों में विशिष्ट विधा का ग्रन्थ भाई श्री दलसुख मालवणिया ने गणधरवाद विषयक जो ग्रन्थ तैयार किया है उसकी प्रस्तावना देखने के पश्चात् उसमें ऐतिहासिक विभाग सम्बन्धी जो स्थल संशोधन करने योग्य लगे उसकी ओर मैंने लेखक का ध्यान आकृष्ट किया था, यह एक सामान्य बात थी । प्रस्तावना को प्राद्योपान्त पढ़ने के पश्चात् मैंने यह अनुभव किया कि भाई श्री मालवणिया ने गणधरवाद जैसे प्रतिगहन विषय को कुशलतापूर्वक अत्यधिक सरल बना दिया है । इसके अतिरिक्त उन्होंने गणधरवाद में चर्चित पदार्थों के उद्गम और विकास के विषय में वैदिक काल से लेकर जो सप्रमाण दार्शनिक और शास्त्रीय इतिहास प्रस्तुत किया है उससे तात्त्विक पदार्थों का क्रमिक विकास किस प्रकार होता गया और एक-दूसरे दर्शनों पर उसका किस-किस रूप में प्रभाव पड़ा यह स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है । इसके साथ ही यह भी लक्ष्य में श्रा जाता है कि सम्यग् ज्ञान-दर्शन की भूमिका में स्थित महानुभावों को तात्त्विक पदार्थों का अध्ययन, अवलोकन एवं चिन्तन किस विशाल और तटस्थ दृष्टि से करना चाहिये; जिससे उनकी सम्यग् ज्ञान दर्शन की अवस्था दूषित न हो । प्राचीन और गहन जैन ग्रन्थों के देश्य भाषाओं में जो विशिष्ट भाषान्तर, ऐतिहासिक निरूपण आवश्यक विवेचन के साथ प्रकाशित हुए हैं उनमें गणधरवाद का प्रस्तुत भाषान्तरग्रन्थ एक विशिष्ट मानक - विधा प्रस्तुत करता है; यह एक सत्य है । अहमदाबाद भाद्रपद कृष्णा अमावस्या वि० सं० 2008 Jain Education International For Private & Personal Use Only - मुनि पुण्यविजय www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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