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गणधरवाद की हिन्दी आवृत्ति के अवसर पर
प्रस्तुत गणधरवाद गुजराती में कई वर्षों से उपलब्ध नहीं है । इसके दूसरे संस्करण के लिये प्रकाशन संस्थाओं से निवेदन एवं प्रयत्न करने पर भी इसकी द्वितीयावृत्ति प्रकाशित नहीं हो सकी। ऐसी स्थिति में यह हिन्दी संस्करण प्रकाशित हो रहा है, अतः मैं संतोष एवं आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ।
प्रो० पृथ्वीराज जैन एम. ए. ने मनोयोग पूर्वक कई वर्षों पूर्व इसका गुजराती से हिन्दी में अनुवाद किया था। वे आज अपने इस अनुवाद को प्रकाशित रूप में देखकर आनन्दित होते, किन्तु खेद है कि उनका गत वर्ष ही स्वर्गवास हो गया। मैं उनका ऋणी हूँ।
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराज जी मेहता को धन्यवाद देना मेरा परम कत्तव्य हो जाता है, जिनके उत्साह के बिना यह अनुवाद शायद प्रकाशित ही नहीं होता।
इस हिन्दी संस्करण के संशोधन का समग्र कार्य पण्डित श्री महोपाध्याय विनयसागरजी ने बड़े मनोयोग एवं प्रेम से किया है, अतएव उनका भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ।
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर ने इसे प्रकाशित करके हिन्दी भाषी पाठकों के लिये यह ग्रन्थ सुलभ कर दिया, एतदर्थ मैं इस संस्थान का भी ऋणी रहूँगा।
प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद के प्रकाशन के समय मैं कुछ भी विशेष नहीं कर सका, इसका मुझे खेद है, क्योंकि मेरा स्वास्थ्य अब ऐसा नहीं रहा कि मैं इसमें अब विशेष परिश्रम कर सकू।
वाचकों का ध्यान एक भ्रान्ति की ओर आकर्षित करना मेरा कर्तव्य है। जब गणधरवाद पुस्तक गुजराती में प्रकाशित हुई थी तब श्री अगरचन्दजी नाहटा ने मेरा ध्यान इस ओर खेंचा था किन्तु प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद की छपाई के पूर्व मैं इस बात को भूल गया था, अतएव निम्न भ्रान्ति रह गई । प्रस्तावना पृष्ठ ६० में मुद्रित है कि भवभावना-विवरण मं० ११७७ में पूर्ण हुआ, किन्तु वस्तुतः वह सं० ११७७ में होना चाहिए। अतएव सं. ११७७ मानकर भवभावना-विवरण और विशेषावश्यक-वृत्ति के पूर्वापरभाव की जो चर्चा मैंने की है वह निरर्थक है । उसे वहाँ से हटा देना चाहिए।
अहमदाबाद
- दलसुख मालवरिणय
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