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शुभ समाप्ति
कोई भी योग्य कार्य सुयोग्य हाथों से योग्य रीति से सम्पन्न होता है तो वह शुभ समाप्ति मानी जाती है । प्रस्तुत भाषान्तर ऐसी ही एक शुभ समाप्ति है । श्वेताम्बर परम्परा के संस्कार धारण करने वाले श्रद्धालुओंों में भाग्य से ही कोई ऐसे होंगे जिन्होंने कम से कम पर्युषण के दिनों में कल्पसूत्र न सुना हो । कल्पसूत्र के मूल में तो नहीं किन्तु उसकी टीकात्रों में टीकाकारों ने भगवान् महावीर और गणधरों के मिलन प्रसंग में गणधरवाद की चर्चा सम्मिलित की है । मूलतः इसकी चर्चा 'विशेषावश्यक भाष्य' में श्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विस्तार से की है । 'विशेषावश्यक भाष्य' जैन परम्परा के आचार-विचार से सम्बन्धित छोटे-मोटे लगभग समस्त मुख्य विषयों को स्पर्श करते हुए उन समस्त मुख्य विषयों की प्रागमिक दृष्टि से तर्कपुरस्सर चर्चा करने वाला और तत्-तत्स्थानों में सम्भावित दर्शनान्तरों के मन्तव्यों की समालोचना करने वाला एक ग्राकर ग्रन्थ है । इसीलिए प्राचार्य ने गणधरवाद का प्रकरण अलंकरणपूर्वक इसमें सम्मिलित किया है । इसमें जैन परम्परा सम्मत जीव-जीव आदि नवतत्त्वों की प्ररूपणा भगवान् महावीर के मुख से आचार्य ने इस पद्धति से कराई है कि मानों प्रत्येक तत्त्व का निरूपण भगवान् उन-उन गणधरों की शंका के निवारण के लिए ही करते हों । प्रत्येक तत्त्व की स्थापना करते समय उस तत्त्व के किसी भी अंश में विरोध हो, ऐसे अन्य तैथिकों के मन्तव्यों का उल्लेख कर, भगवान् तर्क और प्रमाण द्वारा स्वयं का तात्त्विक मन्तव्य प्रस्तुत करते हैं । इससे जैन तत्त्वज्ञान को केन्द्र में रखकर प्रस्तुत गणधरवाद विक्रम की सातवीं शताब्दी तक के चार्वाक, बौद्ध और समस्त वैदिक आदि समग्र भारतीय दर्शन परम्परा की समालोचना करने वाला एक गम्भीर दार्शनिक ग्रन्थ बन गया है । ऐसे ग्रन्थ का पं० श्री दलसुख मालवणिया ने जिस अभ्यासनिष्ठा और कुशलता से भाषान्तर किया है, वैसे ही उसके साथ में अनेकविध ज्ञान-सामग्री संकलित कर प्रस्तावना परिशिष्ट आदि लिखे हैं, उसका विचार करते हुए कहना पड़ता है कि योग्य ग्रन्थ का योग्य भाषान्तर योग्य हाथों से ही सम्पन्न हुआ है ।
श्री पूनमचन्द करमचन्द कोटा वाला ट्रस्ट के दोनों ट्रस्टियों (श्री प्रेमचन्द के० कोटा वाला र श्री भोलाभाई जेसिंग भाई) की लम्बे समय से प्रबल इच्छा थी कि गणधरवाद का गुजराती में उत्तम भाषान्तर हो । इसके लिए दो-तीन प्रयत्न भी हुये, किन्तु वे कार्यसाधक नहीं हुये । अन्त में जुलाई, 1950 में यह कार्य भो० जे० विद्याभवन की ओर से श्रीयुत् मालवणिया को प्रदान किया गया । अत्यधिक वाचन, अभ्यास, पर्याप्त समय और श्रम की अपेक्षा रखने वाला यह कार्य दो वर्ष जितने समय में पूर्ण हुग्रा और वह भी जैसा सोचा था और सुन्दर रीति से पूर्ण हुआ ।
उससे अधिक
गुजराती भाषा में जो कुछ श्रेष्ठतम दार्शनिक साहित्य प्रकाशित हुआ है उसमें प्रस्तुत भाषान्तर की गणना अवश्य होगी, ऐसा इसके विचारशील अधिकारी पाठकों को अवश्य ही
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