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________________ प्रतीत होगा। जैन दार्शनिक साहित्य के विकास में तो यह भाषान्तर अधुना अग्रस्थान प्राप्त करने योग्य है। इससे पूर्व श्रीयुत् मालवणिया ने न्यायावतारवातिक वृत्ति' ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में प्रस्तावना और टिप्पण के साथ सम्पादन कर हिन्दी भाषा के विज्ञ दार्शनिक जगत् में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया ही है; अब इस गुजराती भाषान्तर के द्वारा गुर्जर भाषा के जानकार दार्शनिक मण्डल में भी ये विशिष्ट स्थान प्राप्त करेंगे, ऐसी घोषणा करते हुए मुझे किंचित् भी संकोच नहीं हो रहा है। __मैं श्रीयुत् मालवणिया के उत्तरोतर विस्तृत और विकसित दार्शनिक अध्ययन, चिन्तन और लेखन का पिछले 20 वर्षों से साक्षी रहा हूँ। प्रस्तुत भाषान्तर के साथ जो अन्य ज्ञानसामग्री संयोजित की गई है, उसके वैशिष्ट्य को देखने और समझने से कोई भी व्यक्ति मेरी उक्त यथार्थ मान्यता की पुष्टि करेगा ही। प्रस्तुत पुस्तक में ध्यानाकर्षण योग्य विशेषताओं का यहाँ निर्देश करना अनुपयुक्त न होगा। (1) मूल, टीका और उनके प्रणेतानों से सम्बन्धित परम्परागत एवं ऐतिहासिक परिचयात्मक तथ्यों का दोहन कर, उसे प्रस्तावना में प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया गया है जो ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करने वालों का ध्यान सर्वप्रथम प्राकर्षित करता है। (2) जैन दर्शन सम्मत नव तत्त्वों के विचार का विकास प्राचीन काल से चलने वाली अन्य अनेकविध दर्शन-परम्पराओं के मध्य में किस प्रकार से हुया है, उसकी कालक्रम से तुलना करते हुए ऐसी पद्धति से प्रतिपादन किया है जिसमें वेद, उपनिषद्, बौद्ध, पालि और संस्कत के ग्रन्थों तथा वैदिक-सम्मत लगभग समस्त दर्शनों के प्रमाणभत ग्रन्थों का निष्कर्ष आ जाता है । यह बात (वस्तु) तुलनात्मक दृष्टि से दार्शनिक अभ्यास करने वालों का ध्यान विशेष रूप से प्राकर्षित करती है । (3) नव तत्त्वों को, प्रात्मा, कर्म और परलोक इन तीन तत्त्वों (मुद्दों) में संक्षेप कर, उनकी अन्य दर्शन-सम्मत विचारधारा के साथ विस्तार से ऐसी तुलना की गई है कि जिससे उनउन तत्त्वों से सम्बन्धित समस्त भारतीय दर्शनों के विचार वाचक एक ही स्थान पर हृदयंगम कर सके। प्रस्तावनागत उपरोक्त सूचित विशेषताओं के अतिरिक्त अन्य जो भी विशेषताएँ हैं उनमें से कुछ-एक निम्न प्रकार हैं (1) टिप्पणियाँ-भाषान्तर पूर्ण होने के बाद उसके अनुसन्धान में अनेक दृष्टियों से पृष्ठ 180 से 210 पर्यन्त टिप्पणियाँ दी गई हैं। मूल गाथाओं में प्रयुक्त और अनुवाद में प्रागत ऐसे अनेक दार्शनिक शब्दों का स्पष्टीकरण उनमें किया गया है। इसी प्रकार प्राचार्य जिनभद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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