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________________ ने कोई विचार प्रकट किये हों, अथवा कोई युक्तियाँ दी हों, अथवा किसी शास्त्र का पद या वाक्य सूचित किया हो, तो उन स्थलों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि निर्देश करने के पश्चात् दार्शनिक विचारों की तुलना की गई है। प्राचार्य जिनभद्र द्वारा इन विचारों, युक्तियों और आधारों को जहांजहाँ से ग्रहण किये जाने की सम्भावना है, उनमें से प्राप्त समस्त मूल-स्थलों को यहाँ दिखलाया गया है। केवल इतना ही नहीं, अपितु उनसे सम्बन्धित भिन्न-भिन्न दर्शनशास्त्रों के अनेक विध ग्रन्थों में जो कुछ प्राप्त हुपा उन सब का ग्रन्थ-नाम और स्थल के साथ उल्लेख किया है। वस्तुतः ये टिप्पणियाँ ऐतिहासिक और तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने की इच्छा रखने बालों के लिये एक अभ्यास-ग्रन्थ जैसी हैं। (2) मल-'विशेषावश्यक भाष्य' की प्राचीन से प्राचीन लगभग दसवीं शताब्दी में लिखित प्रति, जो जैसलमेर भण्डार में प्राप्त हुई है उसके साथ मिलान करने के लिये वहाँ स्वयं जाकर लिये हुए पाठान्तरों के साथ में गणधरवाद की मूल गाथाएँ परिशिष्ट में दी गई हैं वे रचनाकालीन असली पाठशुद्धि के निकट पहुँचने के इच्छुक जिज्ञासु की दृष्टि से एवं कालक्रम से लेखन और उच्चारण-भेद को लेकर किस किस रीति से मूल पाठ में परिवर्तन होता है वह पाठालोचन की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है । (3) टीकाकार ने जो अवतरण (उद्धरण) उद्धृत किये हैं और जो अवतरण चर्चा की भूमिका को पूर्ण करते हैं उन अवतरणों के मूल-स्थानों का उल्लेख करने वाला परिशिष्ट संशोधक विद्वानों की दृष्टि में बहुत ही उपयोगी है। (4) पृष्ठांक 255-264 में दी हुई शब्दसूची, भाषान्त र में प्रयुक्त पदों और नामों के अतिरिक्त ग्रन्थगत विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से विशेष उपयोगी है । समग्र भाषान्तर ऐसी सरसता और प्रवाहबद्ध मधुर भाषा में हुआ है कि पढ़ने के साथ ही जिज्ञासु अधिकारी को इसका अर्थ, रहस्य समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। भाषान्तर की यह भी विशेषता है कि इसमें मूल और टीका दोनों का सम्पूर्ण प्राशय पुनरुक्ति के बिना प्रा जाता है और यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ हो ऐसा अनुभव होता है । संवादात्मक शैली के कारण जटिलता नहीं रहती और भगवान् एवं गणधरों के प्रश्नोत्तर पूर्णरूपेण पृथक्-पृथक् ध्यान में आ जाते हैं । अनुवाद में जो पारिभाषिक शब्द आये हैं, जो दार्शनिक विचार संकलित हुए हैं और जो दोनों पक्षों के तर्क दिये गये हैं उन सब का अत्यधिक स्पष्टीकरण हो जाने से भाषान्तर जटिल न बन कर सुगम बन गया है तथा विशेष जिज्ञासु के लिये अन्त में टिप्पणियाँ होने से उसकी विशिष्ट जिज्ञासा भी सन्तुष्ट हो जाती है । वैदिक, बौद्ध या जैन आदि भारतीय दर्शनों में प्रात्मा, कर्म, पुनर्जन्म, परलोक जैसे विषयों की चर्चा साधारण है । उससे कोई भी भारतीय दर्शन की शाखा का उच्चस्तरीय प्रध्ययन करने वाले एम० ए० की कक्षा के विद्यार्थियों अथवा उस विषय में शोधपूर्ण प्रबन्ध लिखकर डॉक्टरेट उपाधि के अभिलाषियों अथवा अध्यापकों के लिये यह पूरी पुस्तक बहुत ही उपयोगी और बहुमूल्य सामग्री प्रदान करने वाली है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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