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________________ प्रस्तावना लोक की बातें जानने के लिए उत्सुक हैं, अतः उनके अधिकतर प्रश्नों की पृष्ठभूमि में जिज्ञासा का तत्व है, किन्तु कुछ ऐसे भी प्रश्न हैं जिनसे उनकी जिज्ञासा के अतिरिक्त पूर्ण तुष्टि हुए बिना कोई भी बात स्वीकार न करने की उनके स्वभाव की विशेषता विदित होती है; इसके उदाहरण स्वरूप आनन्द श्रावक के अवधिज्ञान के प्रसंग का उल्लेख किया जा सकता है । ग्रानन्द श्रावक को अमुक मर्यादा में अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई थी, यह जानकर भी गौतम ने कहा, गृहस्थ को अवधिज्ञान होता तो है किन्तु इतना अधिक नहीं; अतः तू ग्रालोचना कर और और प्रायश्चित्त ले, किन्तु श्रानन्द ने प्रत्युत्तर में उन्हें कहा कि आलोचना मुझे नहीं, अपितु आपको ही करनी है । यह सुनकर इन्द्रभूति शंका, कांक्षा और विचिकित्सा में पड़ गए और भगवान् के पास जाकर सारी बात उनसे कही । भगवान् ने गौतम से कहा कि जो कुछ आनन्द ने कहा है, वही तथ्य है, अतः तुम्हें उससे क्षमा माँगनी चाहिए । गौतम सरल स्वभाव के थे, अतः उन्होंने जाकर ग्रानन्द से क्षमा माँगी 2, इससे गौतम की नम्रता भी स्पष्ट होती है । इसी प्रकार किसी भी परनीर्थिक की बात सुनकर गौतम तत्काल भगवान् के पास ग्राते हैं और स्पष्टीकरण करते हैं तब ही उन्हें सन्तोष होता है । यदि कोई नई बात प्रत्यक्ष हुई हो, तो वे उसका भी शीघ्र ही समाधान कर लेते थे, उदाहरणतः वह प्रश्न लिया जा सकता है जो उन्होंने नन्दा के स्तन में से दूध की धारा बहने पर किया था । आगमों में जैसे गौतम के भगवान् महावीर के साथ हुए संवादों का उल्लेख है, उसी प्रकार उनके अन्य स्थविरों के साथ हुए संवाद भी निर्दिष्ट हैं । दृष्टान्त के रूप में केशी- गौतम संवाद लिया जा सकता है । उसमें गौतम, केशी श्रमण को महावीर और पार्श्वनाथ के शासन-भेद का रहस्य समझाते हैं और अन्त में उन्हें महावीर के शासन में दीक्षित करते हैं । I 'समयं गोयम मा पमायए' - इस प्रसिद्ध पद्यांश वाला अध्ययन अत्यन्त प्रसिद्ध है । वह गौतम के बहाने सर्व जन साधारण को भगवान् द्वारा दिए गए अप्रमाद के उपदेश का सुन्दर उदाहरण है । गौतम की समय-सूचकता का परिचय देने वाले कुछ प्रसंग श्रागम में उल्लिखित हैं । अन्यतीर्थिक स्कंदक के आगमन का समाचार भगवान् से सुनकर वे उसके पास गए और उसे बता दिया कि वह भगवान् के पास क्यों प्राया है ? और उसके मन में क्या शंकाएँ हैं ? इससे स्कंदक परिव्राजक भगवान् का श्रद्धालु बन जाता है? | 63 आगम में हम इन्द्रभूति को भगवान् महावीर के सन्देशवाहक का कार्य करते हुए भी देखते हैं । महाशतक की मारणान्तिक संलेखना के समय भगवान् से प्रायश्चित्त करने की प्रेरणा 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. उपासक दशांग अ० 1 उपासक दशांग अ० । भगवती 2.5 इत्यादि भगवती 9.33 गुज० अनुवाद भाग 3, पृ० 164 उत्तराध्ययन श्र० 23 उत्तराध्ययन प्र० 10 भगवती शतक 2, उ० 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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