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________________ 60 गणधरवाद hcE - इस ग्रन्थ की मूल गाथाएँ 286 हैं और इसकी वृत्ति का परिमाण 6(027 श्लोक जितना है । इससे प्रकट है कि टीकाकार ने विवेचन में कितना विस्तार किया है। 7. भवभावना सूत्र : इस ग्रंथ की रचना 53 1. प्राकृत गाथायों में हुई है। इस का गौण नाम 'मुक्ताफलमाला" अथवा 'रत्नमालिका' अथवा 'रत्नावलि' भी मुचित किया है। इस ग्रन्थ में बारह भावनामों में से भव-भावना अथवा संसार-भावना का मुख्य रूपेण वर्णन है,, अतः इसका नाम भव-भावना रखा गया। प्रसंगवश प्राचार्य ने बारह भावनामों का भी वर्णन कर दिया है, तथापि 531 में से 322 गाया तो केवल एक भव-भावना के विवरण की ही हैं, अत: इसका यह नाम सर्वथा उचित है । इसमें जीव की चारों गति के भवों और उनके दुःखों का वर्णन तो है, ही, इसके अतिरिक्त एक, भव में भी बाल्यादि जो विविध अवस्थाए है, उनका भी विशेषरूपेणं वर्णन है । '8. भवभावना विवरण : .... पूर्वोक्त ग्रन्थ का विवरण वृत्ति के नाम से स्वयं प्राचार्य ने लिखा है । इसका परिमाण 1 2950 श्लोक जितना है । इस विवरण का अधिकतर भाग नेमिनाथ तथा भवन भानु के चरित्री से परिपूर्ण है। विवरण संस्कृत में लिखा गया है, किन्तु उपदेशमाला विवरण के “समान उद्धतः कथाएँ: प्राकृत में ही हैं। सामान्यतः इसमें उन कथानों का समावेश नहीं है जो उपदेणमाला विवरण में या चकी हैं, अतः ये दोनों ग्रेन्यं कथा-साहित्य की दृष्टि से एक-दूसरे के पूरक हैं | विषय की दृष्टि से भी दोनों के सम्बन्ध में यही बात है। यह मानना होगा कि, ये दोनों ग्रन्थ मिलकर जैन धर्म का प्राचार विषयक समस्त उपदेश दृष्टान्त सहित उपस्थित करते हैं। उपदेशमाला के विवरण की भाँति इसमें भी प्राध्यात्मिक रूपकों की योजना की गई है और उसका अाधार सिद्धषि की उपमिति-भव-प्रपंचा कथा है, यह वात प्राचार्य ने भी स्पाट कर दी है। इस वृत्ति का निर्माण प्राचार्य ने वि० सं० 1177 के श्रावण मास की पंचमी के दिन रविवार को पूर्ण किया, इस बात का उल्लेख ग्रन्थ के अन्त में है। वह उल्लेख इस प्रकार है : * .... 'सप्तत्यधिकैका दशवर्षशतैविक्रमादतिक्रान्तः । । निष्पन्ना वृत्तिरियं श्रीवरगर विपञ्चमी दिवसे ।। विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति के अन्त में उसका रचना-काल बताया गया है, वह विक्रम 1175 है और इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि० 1177: निदिष्ट है। उन्होंने ग्रन्य-रचना का जो क्रम बताया था, उसमें विशेषावश्यक वृत्ति का निर्देश सब के अन्त में था, उसके स्थान पर प्रस्तुत ग्रन्थ को नन्तिम स्थान मिलना चाहिए, किन्तु प्राचार्य ने विशेषावश्यक वृत्ति को 'सर्व के अन्त में क्यों रखा ? इसका कारण ज्ञात करने का कोई साधन नहीं है। विवरण सहित भव-भावना ग्रन्थ थी ऋषभदेवजी केशरीमलजी की पीढ़ी ने रतलाम से प्रकाशित किया है। 9: नन्दि टिप्पण-- इस ग्रन्थ की किसी प्रति का अंव तक कहीं निर्देश नहीं किया गया है, अत: इसको प्रति का उल्लेख जिनरत्न-कोश में भी नहीं मिलता। श्री देसाई ने भी इस ग्रन्थ की प्रति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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