________________
प्रस्तावना
59
तथा अनुयोग मुख्यतः संयमी के लिए लाभदायक ग्रन्थ है, जब कि यह उपदेशमाला धर्म के जिज्ञासुग्रों को यह बात सिखाती है कि उत्तरोत्तर प्राध्यात्मिक विकास के मार्ग पर आगे कैसे बढ़ना चाहिए । इस उपदेशमाला को वस्तुतः प्राचार-शास्त्र की बाल-पोथी कहना चाहिए । 5. उपदेशमाला विवरण :
उपदेशमाला की यह टीका संस्कृत में लिखी गई है, किन्तु उसका अधिकतर भाग प्राकृत गद्य और पद्य की कथानों द्वारा भरा हुमा है । मूल में प्राचार्य ने दृष्टान्त का संकेत किया है, परन्तु विवरण में उसके सम्पूर्ण कथानकों को कथाकार के ढंग से वर्णित कर दिया है; अतः इस विवरण का परिमाण खूब बड़ा हो गया है और वह परिमाण 13868 श्लोक का है । जैन कथा-पाहित्य के अभ्यासी के लिए यह ग्रन्थ कथा-कोष का काम देता है।
प्राचार्य ने अधिकतर कथानक अन्य ग्रन्थों से उद्धृत किये हैं और कुछ को अपनी भाषा में प्रतिपादित किया है, अत: इस ग्रन्थ से अधिकतर कथाओं को उनके प्राचीन रूप में ही सुरक्षित रखने का उद्देश्य पूरा हो जाता है ।
आचार्य सिद्धर्षि की रूपक-कथा उपमिति-भव-प्रपंचा से मलधारी हेमचन्द्र बहुत प्रभावित हुए, अतः उन्होंने उससे प्राध्यात्मिक अर्थ गर्भित कथानक भी इस ग्रन्थ में लिए हैं और प्रारम्भ में ही उसका प्राभार माना है। विवरण सहित उपदेशमाला रतलाम की श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी की पेढी से प्रकाशित हुई है। 6. जीवसमास विवरण :
__ अथवा जीवसमास वृत्ति नाम का ग्रन्थ प्राचार्य ने वि० 1164 से पूर्व लिखा होगा। इसका कारण यह है कि उनके हस्ताक्षर वाली वि० 1164 की लिखी हुई एक प्रति खम्भात के शान्तिनाथ भण्डार में विद्यमान है। जीवसमास का कर्ता कौन है ? यह ज्ञात नहीं हो सका। इसका लेखक कोई प्राचीन आचार्य होना चाहिए। इससे पहले शीलांकाचार्य ने भी जीवसमास की टीका लिखी थी, इससे उनके समय में भी इस ग्रन्थ का महत्व सिद्ध होता है। आगमोदय समिति ने मूल सहित यह विवरण मुद्रित किया है और उसका गुजराती भावार्थ मास्टर चन्दुलाल नानाचन्द ने प्रकाशित किया है।
जीवसमास-अर्थात् जीवों का चौदह गुण-स्थानों में संग्रह । अनुयोग के सतपद प्ररूपणा आदि पाठ द्वारों से जीवसमास का विचार इस ग्रन्थ में मुख्यतः किया गया है। प्रसंगवश अजीव के विषय में भी कुछ वर्णन है, तदपि ग्रन्थ रचना का मुख्य प्रयोजन जीवों के गुणस्थान-कृत भेदों पर विचार करना है, अतः इसका जीवसमास नाम सार्थक है। प्राचार्य मलधारी ने पूर्वाचार्य-कृत टीकानों के विद्यमान होने पर भी अपनी प्रकृति के अनुसार नई टीका लिखी, इसमें उनका प्रधान लक्ष्य सम्पूर्ण विषय को हस्तामलकवत् स्पष्ट कर देना था। पाठक यह अनुभव किये बिना नहीं रह सकते कि प्राचार्य को इसमें पूर्ण सफलता मिली। इस वृत्ति के बहाने प्राचार्य ने जीव-तत्व का सर्वग्राही विवेचन कर दिया है ।
1. जैन साहित्य सं० इ० पृष्ठ 247 2. जिन रत्नकोश देखें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org