SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 58 गणधरवाद इस प्रशस्ति का भावार्थ यह है कि, प्रश्नवाहन-कुल के हर्षपुरीय गच्छ में, प्राचार्य जयसिंहमूरि हुए, उनके शिष्य महाप्रभावक प्राचार्य अभयदेवसूरि हुए, उनके शिष्य हेमचन्द्रसूरि ने इस वृत्ति की रचना की। इस बन्ध शतक प्रकरण को अहमदाबाद के वीर समाज ने श्रीचक्रेश्वरसूरि के भाष्य तथा प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्र की वृत्ति के साथ प्रकाशित किया है । उसके अन्त में एक लघु भाष्य भी दिया हुआ है। 3. अनुयोगद्वार वृत्ति : अनुयोगद्वार की प्रथम टीका 'चूणि' प्राकृत में थी। वह संक्षिप्त भी थी। प्राचार्य हरिभद्र जैमे समर्थ विद्वान् ने संस्कृत टीका का निर्माण किया था, किन्तु वह भी अधिकतर चूर्णी के अनुवाद रूप और संक्षिप्त थी, अत: अत्यन्त कठिन समझे जाने वाले इस ग्रन्थ की सरल एवं विस्तृत टीका आवश्यक थी। प्रात्रश्यक सूत्र की हरिभद्रीय व्याख्या पर आचार्य मलधारी ने पहले टिप्पण लिखा था; उस अनुभव ने उन्हें प्रेरित किया कि, अनुयोगद्वार की हरिभद्रीय व्याख्या का टिप्पण नहीं, वरन् स्वतन्त्र व्याख्या लिखी जाए। स्वतन्त्र व्याख्या लिखने में पारतन्न्य कम होता है, अतः इसमें जो विषय आवश्यक प्रतीत हों, उसकी स्वतन्त्रता-पूर्वक चर्चा करने का अवकाश रहता है । टीका का टिप्पण लिखते हुए यह अवकाश नहीं मिलता। प्राचार्य की यह कृति क्रम से तीसरी है, किन्तु उनकी लेखिनी-प्रौढ़ता और गहन विषय को भी अति सरल पस्थित करने की पद्धति किसी भी पाठक के हदय में उनकी विद्वत्ता के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करती है । यह टीका अनेक उद्धरणों से व्याप्त है। इससे उनके विशाल अध्ययन का पता चलता है, किन्तु यह कहना ठीक नहीं कि केवल विशाल अध्ययन से इस ग्रन्थ की टीका लिखने की शक्ति प्राप्त होती है । जैन अागम में प्रतिपादित तत्वों के मर्म को हृदयंगम किये बिना और उन तत्वों को स्पष्ट कर मन्दमति शिष्यों के हृदय में अंकित करने की कला तथा शक्ति के बिना इस ग्रन्थ की टीका करने लगना कठिन वस्तु को और भी कठिनतर करना है। इस टीका का अध्ययन करने वाले से यह बात छिपी नहीं रह सकती कि आचार्य आगमों के मर्मज्ञ थे; यही नहीं, उस मर्म को सुव्यक्त करने की शक्ति भी उनमें विद्यमान थी। यह बात सत्य है कि अनुयोगद्वार सूत्र आगमों को समझने की कुञ्जी है, किन्तु इस कुञ्जी के प्रयोक्ता आचार्य मलधारी जैसे समर्थ विद्वान् इस प्रकार की टीका न लिखते तो इस चाबी को जंग लग जाता और समय आने पर आगम का ताला खोलने में यह चाबी असमर्थ रहती। इस टीका का परिमाण 5900 श्लोक जितना है । वह देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्वार के 37वें ग्रन्थ रूप में प्रकाशित हुई है। 4. उपदेशमाला सूत्र : 505 प्राकृत गाथाओं में लिखित इस प्रकरण का दूसरा नाम सम्पादक ने पुष्पमाला लिखा है, किन्तु स्वयं ग्रन्थकार ने इस का गौण नाम कुसुममाला सूचित किया है। इस ग्रन्थ में दान, शील (ब्रह्मचर्य), तप तथा भाव धर्म का सदृष्टान्त विवेचन किया गया है। आवश्यक, शतक तथा अनुयोग का विवेचन शास्त्रीय अभ्यासियों के लिए उपयोगी है, किन्तु यह उपदेशमाला सामान्य कोटि के जिज्ञासुओं को धर्म का रहस्य समझाती है । आवश्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy