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________________ 56 गणधरवाद विस्तार की दृष्टि से देखा जाये तो उनके उपलब्ध ग्रन्थों का परिमाण 75 हजार श्लोकों से अधिक है। सभी ग्रन्थ विषय की दृष्टि से प्रायः स्वतन्त्र हैं, अतः पुनरावृत्ति का भी विशेष अवकाश नहीं रहता' । यह बात माननी पड़ेगी कि उनकी लेखन प्रवृत्ति निरन्तर जारी रही होगी। 1164 में उनका छठा ग्रन्थ लिखा गया तथा 1177 में अन्तिम, अतः हम यह अनुमान कर सकते हैं कि उनका साक्षर-जीवन कम से कम पच्चीस वर्ष का अवश्य रहा होगा। 1. प्रावश्यक टिप्पण : जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, विशेषावश्यक-भाष्य-विवरण के अन्त में और इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में, इस ग्रन्थ का नाम स्वयं मलधारी ने 'आवश्यक टिप्पण' सूचित किया है, तदपि इसका पूरा और सार्थक नाम तो 'पावश्यक वृत्ति प्रदेश व्याख्यानक' है। इसकी सूचना उन्होंने इस ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में दी है। इसका कारण यह कि यह ग्रन्थ प्राचार्य इरिभद्र द्वारा रचित आवश्यक सूत्र की लघुवृत्ति के अंश का टिप्पण है, टिप्पण होने पर भी यह पूर्णतः छोटा ग्रन्थ नहीं, इसका परिमाण 4600 श्लोक का है। यह ग्रन्थ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड की पुस्तक माला के 53वें पुष्प रूप में प्रकाशित हो चुका है। ___ प्राचार्य हरिभद्र की वृत्ति में जहाँ-जहाँ स्पष्टीकरण की आवश्यकता थी, वहाँ-वहाँ प्राचार्य ने इस ग्रन्थ में अपनी प्राञ्जल शैली में विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है, प्रथम शब्दार्थ लिखकर तत्पश्चात् भावार्थ लिखने की शैली में इस टिप्पण की रचना हुई है। 2. बन्धशतक वृत्ति विनयहिता : उक्त विशेषावश्यक टीका के अन्त में जिस ग्रन्थ का उल्लेख शतक विवरण के नाम से किया गया है. वही यह बन्धशतक वृत्ति है । वृत्ति के प्रारम्भ में स्वयं प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि शिवशर्मसूरि ने शतक नाम के कर्म-ग्रन्थ की रचना की थी। कर्ता ने स्वयं प्रथम गाथा में इस ग्रन्थ का नाम बन्धशतक लिखा है। कर्ता ने यह बात स्वयं स्वीकार की है कि इस ग्रन्थ की रचना दृष्टिवाद के आधार पर की गई है, अतः इस ग्रन्थ का महत्व स्वतः सिद्ध है। प्रारम्भ में यह भी बताया गया है कि इस ग्रन्थ में निम्नलिखित विषयों का संक्षिप्त वर्णन है : चौदह गुण-स्थानों और चौदह जीव-स्थानों में उपयोग और योग कितने हैं, किस गुण-स्थान में किन बन्ध-हेतुओं के कारण बन्ध होता है, गुण-स्थानों में बन्ध, उदय तथा उदीरणा कितनी कर्म-प्रकृतियों की होती है, अमुक प्रकृति के बन्ध के समय किन किन प्रकृतियों की उदय और उदीरणा होती है । बन्ध के प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुमान ये चार भेद हैं, इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि इस ग्रन्थ में प्राचार्य ने कर्म-शास्त्र के महत्वपूर्ण विषयों का संक्षेप में निरूपण करने की प्रतिज्ञा की है। __ ऐसे महत्वपूर्ण सर्वसंग्राही ग्रन्थ की 'विनय हिता' नामक वृत्ति लिखकर प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ को सुबोध बना दिया है । इसमें मूल में (गा० 9) तो चौदह गुणस्थानों का 1. 'संक्षपादावश्यकविषयं टिप्पनमहं वच्मिा ' 2. श्रीमदभयदेवसूरिचरणाम्बुजचञ्चरीकश्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितमावश्यकवृत्तिप्रदेशव्याख्यानकं समाप्तम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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