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प्रस्तावना
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महापुरुष ने मुझे संसार समुद्र पार करने के लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप विशाल नौका में बिठा दिया, जिससे मैं उसकी सहायता से शिवरत्नद्वीप (मोक्ष) को सरलता से प्राण कर
नौका में बिठाने के बाद इस महापुरुष ने सद्भावना की मंजूषा में रखकर मुझे शुभ मनोरूप एक महान् रत्न दिया। उन्होंने साथ ही यह कहा कि, जब तक तुम इस शुभ मनरूपी रत्न की रक्षा कर सकोगे, तब तक तुम्हारी नौका सुरक्षित रूपेण आगे बढ़कर निर्विघ्न रूप से तुम्हें यथेष्ट स्थान पर ले जाएगी; यदि इस शुभ मन की रक्षा नहीं कर सकोगे तो तुम्हारी नौका टूट जाएगी। फिर तुम्हारे पास यह शुभ मनोरूप रत्न है, इसलिए मोहराज के सैनिक चोर इसकी चोरी करने के लिए तुम्हारा पीछा करेंगे। तब सम्भव है कि, मंजूषा के पटिये टूट जाएँ; उस समय उस मंजूषा को किसी भी प्रकार से उसके नवीन अंगों का निर्माण कर उस को सुरक्षित रखने की विधि भी गुरु ने मुझे समझा दी। कुछ समय तक मेरे साथ नौका विहार कर वे अन्तर्धान हो गए। यह समाचार प्रमाद नगरी में रहने वाले मोहराज के कानों में पहुँचा। उसी समय उसने अपने सैनिकों को सावधान कर दिया कि, अपने शत्रु ने अमुक संसारी जीव को शिवरत्नद्वीप का मार्ग बता दिया है और वह उस मार्ग को ज्ञात कर यात्रा करने के लिए आगे बढ़ रहा है। यही नहीं, उसने अपने प्रादर्श को मानने वाले अन्य अनेक साथियों को भी अपने साथ लिया है, इसलिए वे हमारे इस संसार नाटक को समाप्त न कर दें, इस उद्देश्य से तुम लोग शीघ्र ही उनके पीछे दौड़ो; ऐसा कह कर वह दुर्बद्धि-नाव में सवार हा और उसके साथी कवासना-नावों में सवार हो गए। मेरी नौका के समीप माने पर तो आसुरी तथा देवी वृत्तियों का युद्ध प्रारम्भ हुआ। उस समय उन्होंने मेरी सद्भावना मंजूषा के अंग जर्जरित कर दिये, अतः उस महापुरुष के उपदेश का अनुसरण करते हुए मैंने उस मंजूषा के नृतन अंगों के निर्माण का संकल्प करके सर्वप्रथम (1) आवश्यक टिप्पण की नई पट्टी उस मंजूषा में जड़ दी और तत्पश्चात् क्रमेण मंजूषा के जो नवीन-नवीन अंग जड़ित किए वे ये हैं--2. शतक विवरण, 3. अनुयोगद्वार वृत्ति, 4 उपदेशमाला सूत्र, 5. उपदेशमाला वृत्ति, 6. जीवसमास विवरण, 7. भव-भावना सूत्र, 8. भव-भावना विवरण, 9. नन्दि टिप्पण 10. विशेषावश्यक विवरण (विशेषावश्यक भाष्य बृहद्वृत्ति)
उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि मलधारी हेमचन्द्र ने अपने गुरु की प्राज्ञा से उक्त दस ग्रन्थ लिख थे। लिखने में उनका मुख्य उददेश्य अपने शुभाध्यवसाय को स्थिर रखना था, गौण उद्देश्य यह था कि, उनके ग्रन्थों को पढ़ कर दूसरे व्यक्ति भी मोक्ष-मार्ग की शुद्धि कर शिवनगरी की ओर प्रयाण करें।
उनके ग्रन्थों में जैन सिद्धान्त-प्रसिद्ध चारों अनुयोगों का समावेश हो जाता है। उनके ग्रन्थ जैन धर्म के प्राचार और जैन दर्शन के विचार इन दोनों क्षेत्रों को आच्छादित कर लेते हैं। उन्होंने केवल विद्वद्भोग्य ग्रन्थ ही नहीं लिखे, प्रत्युत ऐसे ग्रन्थ भी लिखे जिन्हें सामान्य व्यक्ति भी अपनी भाषा में समझ सके, अर्थात् उनकी ग्रन्थ-रचना संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में है। अनुयोगद्वार वृत्ति और विशेषावश्यक-भाष्य-वृत्ति जैसे गम्भीर ग्रन्थों का भी उन्होंने निर्माण किया तथा साथ ही उपदेशमाला और भव-भावना जैसे लोक-भोग्य ग्रन्थों का भी स्वोपज्ञ टीका सहित निर्माण किया।
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