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________________ प्रस्तावना 53 चढ़वाए तथा धंधुका और सच्चउर (सत्यपुर-साचोर) में परतीथिक-कृत पीड़ा का निवारण करवा कर जयसिंह की आज्ञा से उन स्थानों में तथा अन्यत्र रथयात्रा चाल करवाई। पुनश्च, जैनमन्दिर के भाग की जो प्राय बन्द हो गई थी, उसे चालू करवायी और जो आय राजभण्डार में जमा हो चुकी थी, उसे भी राजा को समझा कर वापिस दिलवाई। अधिक क्या कहा जाए ! जहाँ-जहाँ जैन धर्म का पराभव हुअा था, वहाँ-वहाँ सैकड़ों उपाय कर पुन: जैन धर्म की प्रतिष्ठा की। जैनशासन की प्रभावना के लिए ऐसे-ऐसे काम किए कि, दूसरे जिनकी कल्पना भी न कर सकें। उन्होंने ऐसा प्रबन्ध करवाया कि कहीं भी कभी किसी साधु का अनादर न हो सके। 163-177. अणहिलपुर नगर से तीर्थ यात्रा के निमित्त निकले हुए संघ ने प्रार्थना कर आचार्यश्री को अपने साथ लिया। इस संघ में विविध प्रकार के 1100 तो वाहन थे और घोड़े आदि जानवरों की संख्या का तो पार ही न था। इस संघ ने वामणथली (वंथली) में पड़ाव किया। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि, मानो राजा की बहुत बड़ी सेना ने पड़ाव किया हो । श्रावकों ने सोने के बहुमूल्य आभूषण पहन रखे थे। यह सब समृद्धि देख कर सोरठ के राजा दंगार के मन में दुर्भावना उत्पन्न हुई। दूसरों ने भी उसे भड़काया कि, सम्पूर्ण अणहिलवाड़ नगर की समृद्धि पुण्य प्रताप से तुम्हारे आँगन में आई है, इसलिए इस पर अधिकार कर अपना भण्डार भर लेना चाहिए, तुम्हें एक करोड़ का द्रव्य मिलेगा। लोभवश हो उस राजा ने संघ से सारा धन छीन लेने का निश्चय किया; किन्तु दूसरी ओर यह कार्य लोक-मर्यादा के विरुद्ध था, अतः लज्जावश उसने अपने उक्त निर्णय को दबाए रखा। लूं या न लूं, इस दुविधा में पड़ कर किसी न किसी बहाने वह संघ को आगे नहीं बढ़ने देता था। कहने पर भी वह संघ के किसी भी व्यक्ति से मिलता नहीं था। इस अवधि में उसके किसी स्वजन की मृत्यु हो गई। इस निमित्त आचार्य हेमचन्द्र शोक निवारण के बहाने से राजा के पास गए और उसे समझा कर संघ को मुक्त करवाया। बाद में संघ ने क्रमश: गिरनार तथा शत्रुजय में नेमिनाथ और ऋषभदेव के दर्शन किए। उस अवसर पर गिरनार तीर्थ में पचास हजार और शत्रुञ्जय में तीस हजार पारुत्थय (सिक्का) की आय हुई। प्राचार्य के उपदेश को ग्रहण कर भव्य-जन भाविक श्रावक बन जाते और यथाशक्ति देश-विरति अथवा सर्व-विरति प्राचार को ग्रहण करते। 178-179. अन्त में उन्होंने अपने गुरुदेव अभयदेव के समान ही मृत्यु समय में अाराधना की। अन्तर यह था कि, इन्होंने सात दिन का अनशन किया था तथा राजा सिद्धराज स्वयं इनकी शवयात्रा में सम्मिलित हुए थे। ___180. उनके तीन गणधर थे-विजयसिंह, श्रीचन्द्र और विबुधचन्द्र , उनमें से श्रीचन्द्रसूरि उनके पट्टधर हुए । इन श्रीचन्द्र आचार्य ने गुरु के स्वर्गवास के उपरान्त थोड़े ही समय में 'मुनिसुव्रत चरित' लिखा था, वह संवत् 1193 में पूर्ण हुमा था । 1. समय सूचक प्रशस्ति गाथा अशुद्ध है, किन्तु बृहट्टिप्पनिका में सम्वत् 1193 का निर्देश है । पाटन भण्डार की सूची को प्रस्तावना देखें-पृष्ठ 22. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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