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________________ 52 गणधरवाद 132. अपने तेजस्वी स्वभाव से उत्तम पुरुषों के हृदयों को आनन्द देने वाले कौस्तुभमणि के समान श्री हेमचन्द्रसूरि आचार्य अभयदेव के बाद हुए। 133. वे अपने युग में प्रवचन के पारगामी और वचनशक्ति सम्पन्न थे। 'भगवती' जैसा शास्त्र तो अपने नाम के समान उनके जिह्वान पर स्थित था। 134. उन्होंने मूल-ग्रन्थ, विशेषावश्यक, व्याकरण और प्रमाणशास्त्र आदि अन्य विषयों के हजारों ग्रन्थों का अध्ययन किया था । 135. वे राजा और मन्त्री जैसे लोगों में जिनशासन की प्रभावना करने में परायण और तत्पर तथा परम कारुणिक थे । _136-137. जब वे मेघ के समान गम्भीर ध्वनि से उपदेश देते, तब लोग जिनभवन के बाहर खड़े रह कर भी उनके उपदेश का रसपान करते। वे व्याख्यानलब्धि सम्पन्न थे, अतः शास्त्र व्याख्यान के समय जड़ बुद्धि मनुष्य भी सरलता से बोध प्राप्त कर लेते थे। ____138-141. सिद्ध व्याख्यानिक ने वैराग्य उत्पन्न करने वाली उपमिति भव-प्रपंचा कथा बनाई तो थी, किन्तु उसका समझना अत्यन्त कठिन था, अत: कितने ही समय से कोई व्यक्ति सभा में उसका व्याख्यान नहीं करता था; किन्तु जब प्राचार्य ने उस कथा का व्याख्यान किया तो मुग्धजन भी उस कथा को समझने लगे और लोग प्राचार्य से यह विनती करने लगे कि बारबार उस कथा को ही सुनाया जाए, इस प्रकार निरन्तर तीन वर्ष तक प्राचार्य ने उस कथा का व्याख्यान किया। इसके बाद उस कथा का खूब प्रचार हुआ। आचार्य ने जिन ग्रन्थों की रचना की, वे इस 142-145. प्राचार्य ने सर्वप्रथम उपदेशमाला मूल तथा भव-भावना मूल की रचना की। तत्पश्चात् दोनों की क्रमश: 14 हजार और 13 हजार श्लोक प्रमाण वृत्ति लिखी। तदनन्तर अनुयोगद्वार, जीव-समास और शतक (बन्ध-शतक) की क्रमशः छह, सात ओर चार हजार श्लोक प्रमाण वृत्ति लिखी। मूल आवश्यक वृत्ति (हरिभद्र कृत) का टिप्पण पाँच हजार श्लोक प्रमाण लिखा। इस टिप्पण की रचना उक्त वृत्ति के विषम स्थानों का बोध करवाने के लिए की गई थी। विशेषावश्यक सूत्र की विस्तृत वृत्ति 28000 श्लोक प्रमाण लिखी। 146-154. उनके व्याख्यान की प्रसिद्धि सुनकर गुर्जरेन्द्र जयसिंहदेव स्वयं अपने परिवार सहित जिनमन्दिर में आकर धर्म-कथा सुनते थे। कई बार दर्शन की उत्कण्ठा से वे स्वयं उपाश्रय में आकर दर्शन करते और काफी समय तक बातचीत करते रहते। एक बार वे अत्यन्त मान-पूर्वक प्राचार्य को अपने घर ले गए और दूब, फल, फूल, जल आदि द्रव्यों से उनकी प्रारती कर तथा उनके चरण-कमलों के निकट ये सब द्रव्य रख कर उन्होंने पंचांग प्रणाम किया और अपने लिए परोसी गई थाली में से अपने ही हाथों से चार प्रकार के प्राहार का दान दिया । तदनन्तर हाथ जोड़ कर कहने लगे, 'अाज मैं कृतार्थ हुमा हूँ, प्राज मेरा घर आपके पादस्पर्श से कल्याण स्थान बन गया है। मुझे ऐसे प्रानन्द का अनुभव हो रहा है कि, मानो स्वयं भगवान महावीर मेरे घर पधारे हैं।' 155 - 162 प्राचार्य ने राजा जयसिंह को कह कर जैन मन्दिरों पर सुवर्ण कलश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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