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________________ प्रस्तावना 51 करते हुए अन्त में भोजन का सर्वथा त्याग कर दिया। उनके इस उत्तम व्रत की बात ज्ञात कर परतीर्थिक लोग भी अश्रुपूर्ण नेत्रों से उनका दर्शन करने आने लगे। गुर्जुरनरेन्द्र-नगर में ऐसा कोई भी व्यक्ति न था, जो उस समय उनका दर्शन करने न आया हो। शालिभद्रादि अनेक सूरि भी शोक सहित उनके पास गए थे। 112-116. भादों के महीने में 13वाँ उपवास होने पर भी किसी की सहायता लिए बिना स्वयं पैदल चल कर राजमान्य तथा निकटस्थ सभी प्रदेशों में सम्मानित सीयम (श्रीयक) सेठ की अन्तिमकालीन दर्शन की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए सोहिन (शोभित) श्रावक के घर से निकल कर वे उस सेठ के पास गए और दर्शन देकर उसकी मृत्यु को सफल किया। इससे ज्ञात होता है कि, आचार्य वस्तुतः दाक्षिण्य के समुद्र और परोपकार-रसिक थे। इस सेठ ने आचार्यश्री के उपदेश से धर्मव्रत (कार्य) में बीस हजार द्रम खर्च किये। 117. प्राचार्य की संलेखना का समाचार सुनकर प्रायः समस्त गुजरात के नगरों और गांवों के लोग उनके दर्शनार्थ पाए थे। 118. प्राचार्य ने 47 दिन के समाधि-पूर्वक अनशन के पश्चात् धर्म-ध्यान-परायण रहते हुए शरीर का त्याग किया। चन्दन की पालकी में प्रतिष्ठित कर उनका शरीर बाहर लाया गया। उस समय घर की रक्षा के लिए एक-एक आदमी को रखकर सभी लोग उनकी शवयात्रा में भक्ति तथा कौतुक से सम्मिलित हुए। अनेक प्रकार के वाद्यों की ध्वनि से आकाश गूंज उठा था। 119. स्वयं राजा जयसिंह भी अपने परिवार सहित पश्चिम अट्टालिका में प्राकर इस शवयात्रा का दृश्य देख रहे थे। इस आश्चर्यजनक घटना को देखकर राजा के नौकर परस्पर बात करते थे कि, यद्यपि मृत्यु अनिष्ट है, तथापि ऐसी विभूति मिले तो वह भी इष्ट ही है। 120-130. शवयात्रा का विमान प्रातः सूर्योदय के समय निकला था और वह मध्याह्न में यथास्थान पहुँचा। वहाँ लोगों ने उसका सत्कार करने के लिए उस पर अनेक प्रकार के वस्त्रों का ढेर लगा दिया। चन्दन की पालकी और इन वस्त्रों सहित ही उनकी देह का दाह संस्कार किया गया। लोगों ने चन्दन और कपर की ऊपर से वर्षा भी की। आग बुझने पर लोगों ने राख लेली और राख समाप्त होने पर उस स्थान की मिट्टी भी उठा ली; अतः उस जगह पर शरीर परिमाण गढ्ढा पड़ गया । इस राख और मिट्टी से मस्तक-शूल जैसे अनेक प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं। __131. मैंने भक्तिवश होकर भी इसमें लेश मात्र भी मिथ्या कथन नहीं किया, जो कुछ मैंने उनके जीवन में प्रत्यक्ष देखा, उसी के एक-मात्र अंश का वर्णन किया है। प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्र ऐसे प्रभावशाली गुरु के शिष्य थे। उनके ही शिष्य श्रीचन्द्रसूरि ने उनका जो परिचय दिया है, वह उनके जीवन पर प्रकाश डालता है, अतः यहाँ उसे उद्धृत किया जाता है। यह परिचय उक्त प्रशस्ति में ही प्राचार्य अभय देव के परिचय के अनन्तर वर्णित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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