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प्रस्तावना
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गृहस्थाश्रम का नाम प्रद्युम्न था और वं राजमन्त्री थे। उन्होंने अपनी चार स्त्रियो को छोड़कर प्राचार्य अभयदेव मलधारी के पास दीक्षा ली थी।" इससे ज्ञात होता है कि प्राचार्य हेमचन्द्र मलधारी राजमन्त्री थे और सम्भव है कि इसके कारण उनका अनेक राजाओं पर प्रभाव पड़ा हो । मुनिसुव्रत चरित्र की प्रशस्ति2 में श्रीचन्द्रसूरि ने उक्त दोनों प्राचार्यों का जो प्रभावशाली जीवन लिखा है, वह इतना रोचक और वास्तविक है कि उसके विषय में विशेष कहने की आवश्यकता नहीं रहती; अतः वहीं से उसे उद्धृत करता हूँ :
____71-73. भगवान् पार्श्वनाथ के 250 वर्ष बाद तीर्थंकर महावीर हुए जिनका तीर्थ अाज भी प्रवर्तमान है । इन अन्तिम तीर्थकर के तीर्थ में, श्री प्रश्नवाहन कुल में, हर्षपुर गच्छ में, शाकंभरी मण्डल में श्री जयसिंहसूरि एक प्रसिद्ध प्राचार्य हुए। वे गुणों के भण्डार थे और प्राचार परायण थे।
___74-76. उनके शिष्य गुणरत्न की खान के समान अभयदेवसूरि हुए। उन्होंने अपने उपशम गुण द्वारा सुरगुरु (?) का मन आकर्षित कर लिया। उनके गुणगान की शक्ति सुरगुरु में भी नहीं है, फिर मुझ में यह सामर्थ्य कहाँ ? फिर भी उनके असाधारण गुणों की भक्ति के अधीन होकर उनके गुण माहात्म्य का गान करता हूँ।
77. ऐसा प्रतीत होता है कि उनके उच्च गुणों का अनुसरण करने के निमित्त ही उनका शरीर-परिमाण भी ऊँचा था अर्थात् प्राचार्य लम्बे और बलिष्ठ थे।
78. उनका रूप देखकर कामदेव भी पराजित हो गया । इसीलिए वह कभी उनके समीप नहीं पाया अर्थात् प्राचार्य सुन्दर भी थे और काम-विजेता भी।
79-81. तीर्थंकर-रूपी सूर्य के अस्त होने पर भारतवर्ष में लोग संयम-मार्ग के विषय में प्रमादी हो गए, किन्तु उन्होंने तप, नियमादि द्वारा धर्मदीप को प्रदीप्त किया, अर्थात् उन्होंने क्रियोद्धार किया।
82. उनके किसी भी अनुष्ठान में कषाय का अल्पांश भी नहीं रहता था। स्वपक्ष तथा परपक्ष के विषय में उनका व्यवहार माध्यस्थपूर्ण था, अर्थात् वे सर्व-धर्म-सहिष्णु थे।
83. वे प्राचार्य, मात्र एक चोलपट्ट (कटिवस्त्र) तथा एक चादर का ही उपयोग निरीह भाव से करते थे, अर्थात् वे अपरिग्रही जैसे थे ।
84. यशस्वी प्राचार्य वस्त्र एवं देह में मलधारण करते थे, ऐसा ज्ञात होता था कि आभ्यन्तरमल भयभीत होकर बाहर आ गया था ।
85. प्राचार्य रसगृद्धि से भी रहित थे, घी के अतिरिक्त उन्होंने शेष सभी विगयों (विकृतियों) का जीवन पर्यन्त त्याग किया था।
86. वे अपने कर्मों की निर्जरा के लिए ग्रीष्म ऋतु में ठीक मध्याह्न के समय मिथ्यादृष्टि के घर भिक्षार्थ जाया करते थे।
1. जैन साहित्य सं० इ० पृ० 245. 2. पाटन जैन भण्डार ग्रन्थ सूची देखें --पृ० 314 (गायकवाड सिरीज)
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