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________________ गणधरवाद जो देन है, उसके मूल में महान् जैनाचार्य विराजमान हैं। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य को उक्त दोनों राजारों की राजसभा में जो सम्मान प्राप्त हुआ, वह सहसा नहीं मिला; किन्तु वि० 802 में अणहिल्लपुर पाटन की स्थापना से लेकर इस नगर में उत्तरोत्तर जैनाचार्यों और महामात्यों का सम्बन्ध बढ़ता ही गया था और उसी के फलस्वरूप राजा कुमारपाल के समय में जैनाचार्यों के प्रभाव की पराकाष्ठा का दिग्दर्शन प्राचार्य हेमचन्द्र में हुआ । सिद्धराज की सभा में प्राचार्य हेमचन्द्र की प्रतिष्ठा वि० 1181 के बाद ही स्थापित हुई होगी, क्योंकि प्रबन्ध-चिन्तामणि के उल्लेखानुसार दिगम्बर कुमुदचन्द्र के साथ वादी देवसूरि के शास्त्रार्थ के समय आचार्य हेमचन्द्र वहाँ दर्शक के रूप में उपस्थित थे; किन्तु वि० 1191 में मालव विजय के उपरान्त वापिस आए हुए सिद्धराज को प्राचार्य हेमचन्द्र ने जैनों के प्रतिनिधि के रूप में आशीर्वाद दिया था। इससे प्रतीत होता है कि वि० 1181 से 1191 की अवधि में प्राचार्य हेमचन्द्र का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया था और 1191 में वे जैनों के प्रतिनिधि के रूप में सिद्धराज की सभा में उपस्थित थे। प्राचार्य हेमचन्द्र के इस प्रभाव की भूमिका में जो पूर्ववर्ती प्राचार्य थे, उनमें प्राचार्य अभयदेवसूरि मलधारी का स्थान सर्वोच्च प्रतीत होता है । उनके इस स्थान की रक्षा उनके ही पट्टधर प्राचार्य हेमचन्द्र मलधारी ने की है। इन दोनों मलधारी प्राचार्यों ने राजा सिद्धराज के मन में अपने तप एवं शील के बल पर जो भक्ति उत्पन्न की थी, उसी का लाभ उनकी मृत्यू के पश्चात् प्राचार्य हेमचन्द्र को मिला और उससे वे अपनी साहित्यिक-साधना के आधार पर कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में तथा कुमारपाल के समय में जैन शासन के महाप्रभावक पुरुष के रूप में इतिहास में प्रकाशमान हुए । उक्त आचार्य अभयदेवसूरि की परम्परा में होने वाले पद्मदेवसूरि और राजशेखर ने यह प्रतिपादित किया है कि प्राचार्य अभयदेव को राजा 'कर्णदेव' ने मलधारी की पदवी प्रदान की थी। इससे स्पष्ट है कि राजा कर्णदेव पर भी प्राचार्य अभयदेव का प्रभाव था। कर्ण के बाद राजा सिद्धराज पर उनका जो प्रभाव था उसका आँखों देखा वर्णन उनके प्रशिष्य श्रीचन्द्र ने बिना अतिशयोक्ति के किया है। उससे ज्ञात होता है कि राजा प्राचार्य के परमभक्त थे। इसका मुख्य कारण राजा तथा प्राचार्य की परमत-सहिष्णुता थी। प्राचार्य को मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्य मलधारी हेमचन्द्र ने सिद्धराज पर अयभदेव के प्रभाव को स्थिर रखा। राजा को उपदेश देकर उन्होंने अनेक प्रकार से जैनधर्म की प्रभावना में वृद्धि की। सिद्धराज पर मलधारी हेमचन्द्र के प्रभाव का कारण उनका त्याग और तप तो था ही, परन्तु, संभव है कि उनके पूर्व-जीवन के प्रभाव का भी इसमें यथेष्ट भाग हो। . मलधारी हेमचन्द्र की परम्परा में होने वाले राजशेखर ने प्राकृत व्याश्रय की वृत्ति 1387 वि० में पूर्ण की थी। उसकी प्रशस्ति में लिखा है कि-"मलधारी हेमचन्द्र का 1. पद्मदेव-कृत सद्गुरुपद्धति और राजशेखर-कृत प्राकृत व्याश्रय की वृत्ति की प्रशस्ति देखें; किन्तु विविधतीर्थकल्प में लिखा है कि राजा सिद्धराज ने यह सम्मान दिया पृ० 77; यदि राजा सिद्धराज ने ऐसा किया होता तो श्रीचन्द्रसूरि इसका उल्लेख अवश्य करते, अतः अधिक सम्भावना यही है कि यह पदवी राजा कर्णदेव ने दी हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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