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________________ 46 गणधरवाद आचार्य सिद्धसेन ने जीतकल्प भाष्य की चूणि लिखी है । यह सिद्धसेन प्रसिद्ध सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न हैं, क्योंकि दिवाकर प्राचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं । इस चूणि की विषम-पदव्याख्या श्रीचन्द्रसूरि ने वि० 1227 में पूर्ण की थी, अतः सिद्धसेनसूरि का समय वि० 1227 से पूर्व होना चाहिए। . आचार्य जिनभद्र के बाद होने वाले तत्त्वार्थ-भाष्य-व्याख्याकार सिद्धसेन गणि तथा उपमिति भवप्रपंचा कथा के लेखक सिद्धर्षि अथवा सिद्ध-व्याख्यानिक ये दो प्रसिद्ध प्राचार्य तो इस चूणि के लेखक ज्ञात नहीं होते, क्योंकि चूणि अत्यन्त सरल भाषा में लिखी हुई है तथा उक्त दोनों प्राचार्यों की शैली अत्यन्त किलिष्ट है, फिर इन दोनों प्राचार्यों की कृतियों में इस चूणि की गिनती भी नहीं की जाती, अतः प्रस्तुत सिद्धसेन इनसे भिन्न ही होने चाहिए । मेरा अनुमान है कि सम्भवतः प्राचार्य जिनभद्र के वृहत् क्षेत्रसमास की वृत्ति के रचयिता जो सिद्धसेनसूरि हैं वही इस चूणि के कर्ता हों। कारण यह है कि उन्होंने उक्त वृत्ति वि० सं० 1192 में पूर्ण की थी । अत: इस चूणि की जो व्याख्या 1227 में पूरी हुई, उससे पहले वे इस चूणि की रचना करने में समर्थ हुए । इस सिद्धसेन के अतिरिक्त किसी अन्य सिद्धसेन का इस समय के लगभग पता भी नहीं चलता, अतः इस बात की सम्भावना है कि वृहत् क्षेत्रसमास के वृत्तिकार तथा चूर्णिकार एक ही सिद्धसेन हों, यदि ऐसा हो तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि चूर्णिकार सिद्धसेन उपकेश गच्छ के थे और देवगुप्तसूरि के शिष्य तथा यशोदेवसूरि के गुरु भाई थे। इन्हीं यशोदेवसूरि ने उन्हें शास्त्रार्थ सिखाया था। सिद्धसेन-कृत चूणि के विषम-पदों की व्याख्या श्रीचन्द्रसूरि ने की है। प्रशस्ति के लेखानुसार यह व्याख्या वि० 1227 में पूर्ण हुई । प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि श्रीचन्द्र के गुरु का नाम धनेश्वरसूरि था । सिद्धसेन ने स्वयं यह उल्लेख किया है कि जीतकल्प सूत्र की एक अन्य भी चूर्णि थी, किन्तु प्राचार्य जिनविजयजी ने प्रस्तावना में कहा है कि वह उपलब्ध नहीं है। जिनरत्नकोष से ज्ञात होता है कि जीतकल्प का एक विवरण प्राकृत में उपलब्ध है। प्रोफेसर वेलणकर का अनुमान है कि तिलकाचार्य ने अपनी वृत्ति का आधार इस विवरण को बनाया होगा। ___ जीतकल्प की 1700 श्लोक प्रमाण एक अन्य वृत्ति श्री तिलकाचार्य ने भी लिखी थी, वह संवत् 1275 में पूरी हुई । ये शिवप्रभसूरि के शिष्य थे। इसके अतिरिक्त जिनरत्नकोष में एक अज्ञातकर्तृक अवचूरि का भी उल्लेख है।। 1. आचार्य जिनविजयजी ने 'जीतकल्पसूत्र' नाम से जो ग्रन्थ छपवाया है, उसमें यह चूणि और उसकी व्याख्या भी है । प्रकाशक : जनसाहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद । 2. जिनरत्नकोष, जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास-पृ० 240 3. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास पृ० 240 4. जीतकल्प चूणि पृ० 23, पं० 23-'अहवा बितियचुन्निकाराभिप्पाएण' Jain Education International For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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