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प्रस्तावना
वर्तमान काल में ऐसी योग्यता वाले महापुरुष नहीं हैं, तो प्रायश्चित कैसे दिया जाए ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि यह सत्य है कि अधुना केवली ओर 14 पूर्वधारी नहीं हैं, परन्तु प्रायश्चित्त की विधि का मूल प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु में है और उसके आधार पर कल्प प्रकल्प तथा व्यवहार इन तीन ग्रन्थों का निर्माण हुआ है । वे श्राज भी विद्यमान हैं और उनके ज्ञाता भी; ग्रतः इन ग्रन्थों के आधार पर प्रायश्चित्त का व्यवहार अत्यन्त सरलता से हो सकता है । इससे चारित्र की शुद्धि भी हो सकती है फिर उसका आचरण क्यों न किया जाए ? (गा० 254-273)
प्रायश्चित्त देते हुए देने वाले को दया भाव रखना चाहिए और जिसको प्रायश्वित्त देना हो, उसकी शक्ति का भी विचार करना चाहिए। ऐसा होने पर ही प्रायश्चित्त करने वाला संयम में स्थिर होता है, अन्यथा प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और वह शुद्धि के स्थान पर संयम का ही सर्वथा त्याग कर देता है । किन्तु दया भाव इतना महान् न होना चाहिए कि प्रायश्चित्त देने का विचार ही छोड़ दिया जाए। ऐसा करने से दोष-परम्परा की वृद्धि होती है और चारित्र-शुद्धि नहीं हो पाती ( गा० 307 ) । प्रायश्चित्त न देने से चारित्र स्थिर नहीं रहता और उसके प्रभाव में तीर्थ, चारित्र - शून्य हो जाता है। तीर्थ में चारित्र न हो तो निर्वाण की प्राप्ति कैसे सम्भव है ? निर्वाण लाभ के प्रभाव में कोई दीक्षा ही क्यों लेगा ? यदि कोई दीक्षित साधु ही न होगा, तो तीर्थ का व्यवहार ही शक्य नहीं, अतः तीर्थ की स्थिति पर्यन्त प्रायश्चित्त की परम्परा जारी रखनी ही चाहिए । ( 315 - 317 )
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प्रसंगवश भक्त-परिज्ञा (322 - 511), इंगिनीमरण (512-515) और पादपोपगमन (516-559) नामक तीन प्रकार की मारणान्तिक साधना का विवेचन इसलिए किया गया है। कि वर्तमान काल में भी ऐसी कठिन तपस्या का आचरण करने वाले विद्यमान हैं । सामान्य प्रायश्चित्तों का प्राचरण तो उसकी अपेक्षा अत्यन्त सरल है, अत: उसका अवलम्बन विच्छिन्न क्यों माना जाए ?
मूल की प्रथम गाथा के भाष्य में आचार्य ने इसके अतिरिक्त अनेक अन्य प्रासंगिक विषयों की विशद चर्चा की है। इसके बाद मूलानुसारी भाष्य है अर्थात् मूल में जहां साधुओं से होने वाले दोष गिनाए हैं और उनकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्तों का विधान है, वहाँ सर्वत्र मूल के एक-एक शब्द की व्याख्या के पश्चात आवश्यक - सम्बद्ध विषयों की चर्चा भी प्राचार्य भाष्य में की है और भाष्य को एक सुविस्तृत एवं विशद ग्रन्थ का रूप दिया है ।
मुनिराज श्री पुण्यविजयजी ने भाष्य सहित जीतकल्प का सम्पादन किया है और उसे श्री बबलचन्द केसवलाल मोदी ने अहमदाबाद से प्रकाशित किया है ।
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कल्प, बृहत्कल्प के नाम से ज्ञात ग्रन्थ है; प्रकल्प अर्थात् निशीथ; तथा व्यवहार यह व्यवहार-सूत्र नाम का ग्रन्थ है, ये तीनों आज भी विद्यमान हैं ।
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