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आगमादि कोई व्यवहार नहीं, अपितु केवल परम्परा ही होती है ( गा० 678 ) । जो जीतव्यवहार चारित्र की शुद्धि करता है, उसी का प्राचरण करना चाहिए और जो जीत श्राचारशुद्धि का कारण न हो उसका प्राचरण नहीं करना चाहिए ( गा० 692 ) । यह भी सम्भव है कि ऐसा भी कोई जीत व्यवहार हो जिसका आचरण केवल एक व्यक्ति ने किया हो, फिर भी यदि वह व्यक्ति संवेग-परायण हो, संयमी हो और वह प्रचार-शुद्धि कर सिद्ध हुना हो, तो ऐस जीत व्यवहार का अनुसरण करना चाहिए ( गा० 694 ) । इस प्रकार प्रथम मूल गाथा की व्याख्या के प्रसंग पर पाँच व्यवहारों की व्याख्या करने में ही 705 भाष्य गाथात्रों की रचना की गई है। इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने पाँच व्यवहारों की ही व्याख्या नहीं की, किन्तु प्रनेक प्रासंगिक विषयों का विशद विवेचन किया है । आगम व्यवहार के स्पष्टीकरण में पाँच ज्ञानों का संक्षेप में विवेचन है ( गा० 11-106 ) । उसमें विशेषतः 'प्रक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति में नैयायिकादि अन्य दर्शन- सम्मत 'अक्ष' शब्द के इन्द्रिय अर्थ का निराकरण किया है । इन्द्रियजन्य ज्ञान को आचार्य ने प्रत्यक्ष नहीं, प्रत्युत लैंगिक कहा है ( गा० 14-18) केवलज्ञान के प्रसंग में :
सव्वेहि जियपदेसेहि जुगवं जारगति पासई । दंसणेण य गाणं पईवो ग्रब्भमस्स वा । 92 ।
1.
अंबरे व कतो संतो तं सव्वं तु पगासती । एवं तु उवरणतो हो ति संभिण्णं तु जं वयं । 93 |
इन गाथानों से वाचकों को सहसा यह प्रतीत हो सकता है कि आचार्य युगपदुपयोगवादी हैं, परन्तु वस्तुतः वे अपने विशेषावश्यक भाष्य' तथा विशेषणवती ग्रन्थों के आधार पर क्रमक्रियोपयोगवादी ही हैं । अतः इन गाथाओं के 'जुगवं ' शब्द का सम्बन्ध 'जुगवं जाणई, जुगवं पासई' इस प्रकार प्रत्येक के साथ जोड़ना चाहिए, जिससे प्राचार्य का तात्पर्य सुगृहीत हो सके । पूज्य मुनि श्री पुण्यविजयजी ने जीतकल्प की गाथा 60 के आधार पर यह बात सिद्ध की है कि श्राचार्य ने विशेषावश्यक भाष्य की रचना इस ग्रन्थ से पहले की थी । यदि विशेषावश्यक भाष्य की रचना के उपरान्त उनके मत में परिवर्तन हुआ होता, तो वे प्रस्तुत जीतकल्प भाष्य में इस प्रसंग पर विस्तार से इस विषय की चर्चा करते तथा विशेषावश्यक भाष्य में दी गई युक्तियों का खण्डन कर केवली के युगपदुपयोग की सिद्धि करते । आचार्य ने ऐसा नहीं किया, अतः उक्त गाथानों में 'जुगवं ' शब्द का सम्बन्ध पूर्वोक्त प्रकार से करना उचित है ।
ज्ञान विवेचन के अनन्तर प्रायश्चित देने वाले की योग्यता तथा प्रयोग्यता का विस्तारपूर्वक विचार किया गया है (गा० 149 - 256 ) ।
गणधरवाद
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विशेषावश्यक के प्रारम्भ में पाँचों ज्ञानों की चर्चा प्रति विस्तार - पूर्वक की गई है । गाथा 91 से
2. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 3089 से
3.
जीतकल्प भाष्य की प्रस्तावना देखें
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