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अथवा निराधार तो नहीं है, अतः हेतु से प्रागम का समर्थन करना चाहिए, किन्तु हेतु से आगम-विरोधी वस्तु का प्रतिपादन कदापि न करना चाहिए। इसी विषय को अन्य प्रसंग पर और भी अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि आप ऐसा अभिनिवेश क्यों रखते हैं कि आपको जो तर्क संगत प्रतीत हो वही जिनमत होना चाहिए ? तर्क में सर्वज्ञ अथवा जिन के मत निषेध करने का सामर्थ्य नहीं है, अतः तर्क को आगम का अनुसरण करना चाहिए, आगम को तर्क का नहीं" ।
इस छोटे से प्रकरण ग्रन्थ में जिन अनेक आगम और आगमेतर प्रकरणों के मतों का समन्वय किया गया है, वे आगम और आगमेतर ग्रन्थ ये हैं
श्रागम
प्रज्ञापना, स्थानांग ', प्रज्ञप्ति ( भगवती ), द्वीपसागर - प्रज्ञप्ति, जीवाभिगम - प्रज्ञप्ति', जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, प्रावश्यक 10, सामायिक 11, चूर्ण प्रचारप्रणिधि 12, सोमिल पृच्छा (भगवती) ।
श्रागमेतर -
कर्म प्रकृति 13, सयरी 14, वसुदेव चरित्र 15
(6) जीतकल्प सूत्र :
आचार्य जिनभद्र इस ग्रन्थ की रचना 103 गाथात्रों में की है और उसमें जीतव्यवहार के आधार पर दिये जाने वाले प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त वर्णन है ( गा० 1 ) । प्रायश्चित्त का सम्बन्ध मोक्ष के कारणभूत चारित्र से है, क्योंकि चारित्र की शुद्धि का मुख्य आधार
1. गाथा 249
2. गाथा 274
3. गाथा 220, 275
4. गाथा 18
गणधरवाद
5. गाथा 13, 18, 254, 220, 172
6. गाथा 9
7. गाथा 13, 242
8. गाथा 13
9. गाथा 17 का उत्थान
10. गाथा 253
11. गाथा 31
12. गाथा 252
13. गाथा 83, 85, 104, 126
14. गाथा 90-92
15. गाथा 31
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