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________________ प्रस्तावना केवल 34 का ही क्यों निर्देश है ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि 34 का कथन नियत श्रतिशयों की अपेक्षा से है । अन्य अनियत कितने ही हो सकते हैं | आचार्य सिद्धसेन का मत है कि केवली में ज्ञान दर्शनोपयोग का भेद ही नहीं है । दूसरे प्राचार्यो के मत में केवली में ज्ञान-दर्शन का उपयोग युगपद् है. किन्तु प्राचार्य जिनभद्र की मान्यता है कि ग्रागम में ज्ञानदर्शन का उपयोग क्रमिक लिखा है । सिद्धसेन आदि आचार्य आगम-पाठों का अपनी पद्धति से अर्थ कर उनकी संगति का प्रतिपादन करते हैं, किन्तु प्राचार्य जिनभद्र ने श्रागम के अनेक पाठ तथा मन्तव्य उपस्थित कर विरोधी मतों की समालोचना की है और बताया है कि पूर्वापरसंगति की दृष्टि से प्रागम के प्रमाणानुसार क्रमिक उपयोग ही मानना चाहिए । इस ग्रन्थ में यह प्रकरण सबसे लम्बा है और लगभग एक सौ गाथाओं में इसकी चर्चा है । इस चर्चा के उपसंहार में प्राचार्य ने अपना हृदय खोलकर रख दिया है और यह स्पष्ट किया है कि उनकी बुद्धि स्वतन्त्र नहीं किन्तु श्रागम-तन्त्र से बन्धी हुई है । इन गाथाओं से प्राचार्य जिनभद्र की प्रकृति का ठीक-ठीक परिचय मिल जाता है । वे कहते हैं कि मुझे क्रमिक उपयोग के विषय में कोई एकान्त अभिनिवेश नहीं, जिसके आधार पर मैं किसी भी प्रकार उस मत की स्थापना का प्रयत्न करूँ ; तथापि मुझे यह कहना चाहिए कि जिनमत को अन्यथा करने की मुझ में शक्ति नहीं है । पुनश्च ग्रागम और हेतुवाद की मर्यादा भिन्न है, अतः उनका कथन है कि तर्क को एक ओर रखकर मात्र आगम का ही अवलम्बन करना चाहिए और तदनन्तर यह विचार करना चाहिए कि युक्त क्या है और प्रयुक्त क्या है ? प्रर्थात् युक्तियों को आगम का अनुकरण करना चाहिए, न कि जिस विषय का युक्ति से पहले विचार कर लिया जाये, उसके समर्थन में आगमों को रखा जाये । उन्होंने यह भी कहा है कि आगम में जो कुछ कहा है वह अहेतुक 1. 2. 3. 4. 5. 41 गाथा 109-110 TTTTT 153-249 ण वि श्रभिणिवेसबुद्धी अम्हं एगत रोवयोगम्मि । तह विभणिमो न तीरइ जं जिणमयमण्णहा काउं । गाथा 247 मोत्तूण हेउवायं श्रागममेत्तावलंबिणो होउं । सम्ममणुचितणिज्जं कि जुत्तमजुत्तमेयं ति । यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि सिद्धसेन दिवाकर ने हेतुवाद और श्रागमवाद के पारस्परिक विरोध का परिहार दोनों वादों के विषय को पृथक् करके किया है । (देखेंसन्मतितर्क, काण्ड 3, गाथा 43-45. गुजराती विवेचन) । हेतु श्रहेतुवाद का संघर्ष मात्र एक परम्परा में ही नहीं है । ऐसा संघर्ष प्रत्येक दर्शन परम्परा में उत्पन्न होता ही है । उदाहरणतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा दोनों श्रुति या आगम का ही मुख्य ग्राश्रय लेते हैं । वे तर्क का उपयोग श्रागम के समर्थन के लिए ही करते हैं, स्वतन्त्र रूप से नहीं । इसके विपरीत सांख्य जैसे दर्शन मुख्यतः हेतुजीवी हैं, वे तर्क- सिद्ध वस्तु की स्थापनार्थ ही श्रुति का अवलम्बन लेते हैं, ऐसा संघर्ष अनिवार्य है, इसीलिए जैनाचार्यों ने इसका समाधान अपने-अपने ढंग से प्रदर्शित किया है; उसमें क्षमाश्रमण जिनभद्र का पहला स्थान है और सिद्धसेन का दूसरा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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