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________________ गणधरवाद रोपण होने पर भी चारित्रिक परिणामों का अभाव होता है । विग्रहगति के चार व पांच समय के निर्देश की असंगति का भी निराकरण किया है । एक स्थान पर ऋषभ के सात भव और अन्यत्र बारह भव बताये हैं, उसका स्पष्टीकरण भी संक्षेप विस्तार से समझ लेना चाहिए, यह बताया गया है । सिद्धों को आदि अनन्त माना है, किन्तु सिद्धि को कभी भी सिद्धों से शून्य स्वीकार नहीं किया गया, अत: या तो सिद्धों की प्रादि नहीं मानी जा सकती, अथवा सिद्धि को किसी समय सिद्ध-शून्य भी मानना पड़ेगा। प्राचार्य ने इस समस्या का यह समाधान किया है कि जिस प्रकार जीव के समस्त शरीर सादि हैं, फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि कौन-सा शरीर आदि अथवा सर्वप्रथम है, क्योंकि काल अनादि है और जीव के शरीर अनादिकाल से जीव के साथ सम्बद्ध होते आये हैं; अथवा सभी रातें और सभी दिन सादि हैं, फिर भी हम यह नहीं बता सकते कि अमुक दिन या अमुक रात सर्वप्रथम थी, उसी प्रकार सिद्धों के विषय में यह समझना चाहिए कि सभी सिद्ध सादि हैं, तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि कौन-सा सिद्ध सर्वप्रथम था; अतएव सिद्धों के सादि होने पर भी सिद्धि को कभी भी सिद्धिशून्य नहीं माना जा सकता । सिद्धान्त में जिस उत्कृष्ट प्रायु और ऊँचाई का निर्देश है, उसके साथ वासुदेव, मरुदेवी और कुर्मापुत्र आदि की आयु व ऊँचाई का मेल नहीं है । इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि तीर्थंकर की जो उत्कृष्ट प्रायु और ऊँचाई होती है, वह सामान्य मनुष्य की नहीं होती। अथवा यह समझना चाहिए कि कुर्मापुत्रादि सम्बन्धी प्रायु आदि आश्चर्य है, अथवा सिद्धान्त-प्रतिपादित प्रायु और ऊँचाई सामान्य रूप से है, विशेष रूप से नहीं । वनस्पति के जीवों का संख्यातीत पुद्गल परावर्त संसार होता है, तब मोक्ष जाने वाला मरुदेवी का जीव उपान्त्य भव में वनस्पति रूप में किस प्रकार हो सकता है ? इसके उत्तर में बताया है कि उक्त स्थिति कायस्थिति की अपेक्षा से समझनी चाहिए। चतुर्दश पूर्व के विच्छेद के साथ ही प्रथम संघयण विच्छिन्न होता है और प्रथम संघयण के बिना सर्वार्थ में जाना सम्भव नहीं, यह बात सिद्धान्त में प्रतिपादित है। ऐसी अवस्था में वज्र, प्रथम संघयण के अभाव में सर्वार्थ में कैसे गये ? इसका समाधान यह कह कर किया है कि वज्र सर्वार्थ सिद्ध में गये हैं, ऐसा उल्लेख आगम में नहीं है, अतः इसमें विरोध की कोई बात नहीं है। आगम में यह बात बार-बार कही गई है कि विभंगज्ञानी को भी अवधि-दर्शन होता है, तो कर्मप्रकृति में वर्णित अवधि-दर्शन के निषेध के साथ इसकी संगति कैसे होगी? इसका समाधान अपेक्षा विशेष से किया गया है । देवकृत अतिशय 34 से भी अधिक हैं तो पागम में 1. गाथा 21 से 2. गाथा 23 से गाथा 31 से गाथा 35 से 5. गाथा 38 से 45 6. गाथा 46 से 7. गाथा 101-103 8. गाथा 104-106 इन गाथाओं का अर्थ मैंने अपनी समझ से किया है, सम्भव है उसमें भूल हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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