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________________ प्रस्तावना समास की टीका लिखी है और वे चन्द्रगच्छीय अभयदेव परम्परा में-धनेश्वर-अजितसिंहवर्धमान-चन्द्रप्रभ-भद्रेश्वर-हरिभद्र-जिनचन्द्र के शिष्य थे। ___5. देवानन्द कृत वृत्ति--यह वृत्ति पद्मप्रभ के शिष्य देवानन्द ने संवत् 1455 में 3332 श्लोक प्रमाण लिखी। 6. देवभद्र कृत वृत्ति--संवत् 1233 में देवभद्र ने एक हजार श्लोक प्रमाण इस वृत्ति की रचना की। 7. आनन्दसूरि कृत वृत्ति--देवभद्र के शिष्य जिनेश्वर के शिष्य प्रानन्दसूरि ने इसकी रचना की। इसका प्रमाण 2000 श्लोक है । 8-10. वृत्तियाँ--ये किन की हैं, ज्ञात नहीं, किन्तु मंगलाचरणों से पता चलता है कि पूर्वोक्त वृत्तियों से ये भिन्न हैं। (5) विशेषणवती : आचार्य जिनभद्र तर्क की अपेक्षा आगम को अधिक महत्व देते थे, अत: आगम-गत असंगतियों का निराकरण करना उनका परम कर्त्तव्य था । विशेषणवती ग्रन्थ लिखकर उन्होंने अपने इस कर्त्तव्य का का पालन किया। उन्होंने असंगति का निराकरण विशेष प्रकार की अपेक्षा को सन्मुख रखकर किया है । अर्थात् एक ही विषय में दो विरोधी मत उपस्थित हों, तब उन दोनों की विशेषता किस बात में है, यह बताकर असंगति का निवारण करते समय उन मन्तव्यों को विशेषण से विशिष्ट करना पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसी कारण इस ग्रन्थ का नाम विशेषणवती पड़ा । पुनश्च प्रागम-गत असंगतियों के उपरान्त जैनाचार्यों के ही कतिपय ऐसे मन्तव्य थे जो आगम की मान्यता के विरुद्ध थे। उनका प्राचार्य जिनभद्र ने इस ग्रन्थ में निराकरण करते हुए और आगम-पक्ष की स्थापना की है । इस ग्रन्थ में जिन विषयों की चर्चा की गई है. उनमें से कुछ ये हैं :-- प्रारम्भ में ही उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल के माप की चर्चा है। भगवान् महावीर की ऊँचाई जिस शास्त्र में बताई गई है, उसके साथ इन अँगुलों के माप का मेल नहीं है । ऐसी स्थिति में इसका समाधान कैसे करना चाहिये, यह प्रश्न उपस्थित कर उसका अपेक्षा विशेष से समाधान किया है। कुलकरों की शास्त्रों में जो सात, दस और पनरह संख्या दृष्टिगोचर होती है, उसका भी संक्षेप व विस्तार-दृष्टि से विवेचन किया है। तिर्यच में चारित्र नहीं है, यह बात आगम में बताई गई है, फिर भी तिर्यंच को महाव्रत आरोपण करने के उदाहरण शास्त्र में मिलते हैं । इस विरोध का परिहार यह कह कर किया है कि महाव्रता 1. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास पृ० 278 2. रतलाम की ऋषभदेवजी केशरीमलजी की पेढ़ी की ओर से वि० सं० 1984 में प्रत्याख्यान स्वरूपादि पांच ग्रन्थ एक साथ प्रकाशित हुए हैं, उनमें एक यह 'विशेषणवती' 3. गाथा 1 से 4. गाथा 18 से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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