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प्रस्तावना
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स्थिति, भवन तथा अवगाहना, मनुष्यों व तिर्यंचों के देह-मान तथा प्रायु प्रमाण, देवों और नारकों के उपपात तथा उद्वर्तन के विरहकाल, संख्या, एक समय में कितनों का उपपात तथा उद्वर्तन होता है और समस्त जीवों की गति व आगति का इस ग्रन्थ में क्रमशः वर्णन किया गया है।
वस्तुतः यह ग्रन्थ भूगोल व खगोल के अतिरिक्त देवों तथा नारकों के विषय में संक्षेप में जैन-मन्तव्य का प्रतिपादन करता है। यही नहीं, मनुष्यों तथा तिर्यंचों के सम्बन्ध में भी अनेक ज्ञातव्य बातें इसमें संग्रहीत हैं । वास्तविक रूप में इस ग्रन्थ को जीव व जगत् विषयक मन्तव्यों का संग्राहक ग्रन्थ कहना चाहिए। प्राचार्य मलयगिरि ने इस ग्रन्थ की कलश-रूप जो टीका लिखी है, उससे इस ग्रन्थ का स्थान सहज ही जीव व जगत् सम्बन्धी जैन मन्तव्यों के एक विश्वकोश का हो जाता है। अन्त में प्राचार्य ने लिखा है कि, इसमें जो कुछ प्रतिपादित किया गया है, वह मूल श्रुत-ग्रन्थों और पूर्वाचार्यों द्वारा कृत ग्रन्थों के आधार पर स्व-मति से उद्धृत है । इसमें यदि कोई त्रुटि हो तो श्रुतधर और श्रुतदेवी क्षमा करें।
__ इस ग्रन्थ की कुल गाथाएँ 367 हैं, किन्तु प्राचार्य मलयगिरि के अनुसार उनमें कुछ अन्यकृत और कुछ मतान्तर सूचक प्रक्षिप्त* गाथाएँ भी हैं । उन्हें निकाल कर मूल गाथाओं की संख्या 353 है । प्रक्षेप की चर्चा के अवसर पर यह भी बताया गया है कि प्राचार्य हरिभद्र ने भी इसकी एक टीका लिखी थी।
(4) बृहत् क्षेत्रसमास :
आचार्य मलयगिरि ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में और अन्त में क्षेत्रसमास को प्राचार्य जिनभद्र की कृति बताया है। बृहत् क्षेत्रसमास के नाम से प्रसिद्ध क्षेत्र-समास कृति प्राचार्य जिनभद्र की है, इसमें सन्देह का स्थान नहीं है। प्राचार्य जिनभद्र ने स्वयं इस ग्रन्थ का नाम समयक्षेत्र-समास अथवा क्षेत्र-समास प्रकरण सूचित किया है । प्राचार्य मलयगिरि ने मंगलाचरण के प्रसंग पर प्रारम्भ में इसका नाम क्षेत्र-समास सूचित किया है। दूसरे क्षेत्र-समास से इसके पृथक्करण के लिए तथा इसके बृहद् होने के कारण यह ग्रन्थ बृहत् क्षेत्र-समास के नाम से विशेषरूपेण प्रसिद्ध है, तदपि प्राचार्य ने स्वयं इसका जो 'समय-क्षेत्र-समास' नाम प्रदान किया है, वह भी सार्थक है। कारण यह है कि इसमें जितने क्षेत्र में सूर्यादि की गति के आधार पर
1. गाथा 2 व 3 देखें। 2. गाथा 367 3. गाथा 9, 10, 15, 16, 68, (सूर्य प्र०), 69 (सूर्य प्र०), 72 (सूर्य प्र०) 4. अथेयं प्रक्षेपगाथेति कथमवसीयते ? उच्यते, मूलटीकाकारेण हरिभद्रसूरिणा। लेशतोऽप्यस्या
असूचनात् । एवमुत्तरा अपि मतान्तरप्रतिपादिका गाथाः प्रक्षेपगाथा अवसे याः।
मलयगिरि टीका गाथा 73 से 79 तक की गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं । 5. गाथा 1,1;76. 6. गाथा 50,75
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