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________________ 36 गणधरवाद __ दूसरी टीका कोट्याचार्य की है और तीसरी मलधारी हेमचन्द्र की। प्रस्तुत अनुवाद इसी तीसरी टीका के आधार पर तैयार किया गया है। (2) विशेषावश्यक-भाष्य स्वोपज्ञ-वृत्ति आचार्य ने यह टीका संस्कृत में लिखी है। प्रायः प्राकृत गाथानों का वक्तव्य संस्कृत भाषा में लिख दिया गया है और यत्र-तत्र कुछ अधिक चर्चा भी की है। यह वृत्ति अत्यन्त संक्षिप्त है, अतः साधारण पाठक मूल का तात्पर्य नहीं समझ सकते; इसीलिए प्राचार्य कोट्याचार्य तथा मलधारी हेमचन्द्र ने इस पर उत्तरोत्तर विस्तृत टीका लिखना उचित समझा। इस टीका का विशेष परिचय मुनि श्री पुण्यविजयजी ने ही कुछ समय पूर्व दिया है और उन्होंने ही सर्वप्रथम उसकी शोध की है। प्राचार्य ने इस टीका में प्राचार्य सिद्धसेन के नाम का उल्लेख किया है, अतः अब यह बात निश्चित हो जाती है कि अन्य टीकाकारों ने जिन कुछ मतों को सिद्धसेन के मत के रूप में माना है, उनका प्राधार प्रस्तुत टीका ही है। उनकी स्वोपज्ञ टीका से यह भी सिद्ध होता है कि, उन्होंने स्वयं ही इस भाष्य का नाम विशेषावश्यक' रखा। गाथा 1863 तक आचार्य ने व्याख्या की, तत्पश्चात् उनको मृत्यु हो जाने के कारण व्याख्या अधूरी रह गई । (3) बृहत् संग्रहणी बृहत् संग्रहणी के विवरण के मंगलाचरण प्रसंग पर प्राचार्य मलयगिरि ने इस ग्रन्थ के कर्ता के रूप में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का उल्लेख अत्यन्त आदर-पूर्वक किया है, अतः इस बात में सन्देह नहीं रह जाता कि इस कृति के कर्ता प्राचार्य जिनभद्र हैं। प्राचार्य जिनभद्र ने स्वयं इस ग्रन्थ का नाम संग्रहणी लिखा है, किन्तु अन्य संग्रहणियों से पृथक् करने के लिए इसे बृहत् संग्रहणी कहा जाता है। इसमें चारों गति के जीवों की स्थिति आदि का संग्रह किया गया है, अतः इस ग्रन्थ का नाम संग्रहणी पड़ा । प्रारम्भ की दो गाथाओं में प्राचार्य ने इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का संग्रह किया है; उससे ज्ञात होता है कि, देवों व नारकों की 1. गाथा 65 की व्याख्या देखें। 2. गाथा 1442 की व्याख्या देखें । 3. निर्माप्य षष्ठगणधरवक्तव्यं किल दिवंगताः पूज्याः। अनुयोगमार्य (ग) देशिकजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः ॥ तानेव प्रपिपत्यातः परमवि (व) शिष्टविवरणं क्रियते । कोट्टार्यवादिगणिना मन्दधिया शक्तिमनपेक्ष्य ॥ गाथा 1863. नमत जिनबुद्धितेजःप्रतिहतनिःशेषकुमघनतिमिरम् । जिनवचनकनिषण्णं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणम् ॥ यामकुरुत संग्रहणि जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यः । तस्या गुरूपदेशानुसारतो वच्मि विवृतिमहम् ॥ 5. 'ता संगहणि त्ति नामेणं' ।। गा० 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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