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प्रस्तावना
नन्दी चूर्णि तो निश्चित रूप में 733 वि० में बनी थी और उसमें पग-पग पर विशेषावश्यक का उल्लेख है ।
6. आचार्य जिनभद्र के ग्रन्थ
निम्न लिखित ग्रन्थ आचार्य जिनभद्र के नाम से प्रसिद्ध हैं। 1. विशेषावश्यक भाष्य - प्राकृत पद्य
2. विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति - संस्कृत गद्य
3. बृहत् संग्रहणी --- प्राकृत पद्य
4. बृहत् क्षेत्रसमास - प्राकृत पद्य
5. विशेषणवती - प्राकृत पद्य
6. जीतकल्प सूत्र - प्राकृत पद्य
7. जीतकल्पसूत्र भाष्य - प्राकृत पद्य
8. ध्यानशतक
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(1) विशेषावश्यक भाष्य
यदि इस ग्रन्थ को जैन ज्ञान- महोदधि की उपमा दी जाए, तो इसमें लेशमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । इसमें जैन आगमों में बिखरी हुई अनेक दार्शनिक चर्चाओं को सम्यक् और व्यवस्थित रीति से तर्क-पुरस्सर सुव्यवस्थित कर उपस्थित किया गया है। जैन परिभाषाओं को स्थिर रूप प्रदान करने में इस ग्रन्थ को जो श्रेय प्राप्त है, वह शायद ही अन्य अनेक ग्रन्थों को एक साथ मिलाकर मिल सके । जब से इस महान् ग्रन्थ की रचना हुई, तब से जैन आगम की व्याख्या करने वाला कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं बना जिसमें इस ग्रन्थ का आधार न लिया गया हो। इस से हम सहज ही यह समझ सकते हैं कि इस ग्रन्थ का महत्व कितना है । इस ग्रन्थ के अनेक प्रकरण ऐसे हैं, जो स्वतन्त्र ग्रन्थ के समान हैं। पाँच ज्ञान चर्चा, गणधरवाद, विवाद, नयाधिकार, नमस्कार प्रकरण, सामायिक विवेचन तथा अन्य ऐसे अनेक प्रकरण हैं, जो स्वतन्त्र ग्रन्थ का उद्देश्य पूरा करते हैं । आचार्य जब किसी भी विषय की चर्चा का आरम्भ करते हैं, तब उस की गहराई में तो जाते ही हैं, साथ ही उसका विस्तृत वर्णन करने में भी संकोच नहीं करते । फलतः किसी भी विषय की गम्भीर व विस्तृत चर्चा एक ही स्थान पर पाठकों को उपलब्ध हो जाती है ।
यह ग्रन्थ आवश्यक सूत्र की नियुक्ति की टीका के रूप में लिखा गया है, अतः इसका
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मूल के 'अनुसार होना स्वाभाविक है, किन्तु प्राचार्य वस्तु-संकलन में इतने कुशल हैं कि, मूल की स्पष्टता के आधार पर वे अनेक सम्बद्ध विषयों की चर्चा कर देते हैं । इस ग्रन्थ के परिचय के लिए एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के लिखे जाने की आवश्यकता है, अतः यहाँ उसका अधिक विस्तार करना अनावश्यक समझ कर सामान्य परिचय देकर ही सन्तोष मानना उचित है ।
इस भाष्य की 3606 गाथाएँ हैं, उनकी टीका स्वयं प्राचार्य ने संस्कृत में लिखी थी । वह ग्रन्थ के आरम्भ से छठे गणधर तक है, उनके स्वर्गवास के कारण गई, अतः उसे प्राचार्य कोट्टार्य ने पूरा किया ।
शेष टीका अधूरी रह
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