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________________ 34 गणधरवाद जानते हैं कि, यह प्राचार्य जिनभद्र की अन्तिम कृति थी। उसकी टीका भी उनके स्वर्गवास के कारण अपूर्ण रही, अतः स्वयं जिन भद्र की भी उत्तरावधि वि० 650 के पश्चात् नहीं हो सकती। एक परम्परा के आधार पर भी उनकी इस उत्तर अवधि का समर्थन होता है। 'विचारश्रेणी' के उल्लेख के अनुसार आचार्य जिनभद्र का स्वर्गवास वि० 650 में निश्चित किया जा सकता है, क्योंकि उसमें वीर निर्वाण 1055 में प्राचार्य हरिभद्र का स्वर्गवास लिखा है और उसके बाद 65 वर्ष तक जिनभद्र का युगप्रधान-काल बताया है, अत: प्राचार्य जिनभद्र का स्वर्गवास 1120 वीर-निर्वाण संवत् में निश्चित होता है; अर्थात् वि० 650 में उनका स्वर्गवास हुआ। विचारश्रेणी के अनुसार हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं; विचारश्रेणी का यह मत हमारी उपर्युक्त विचारणा के अनुकूल है, अत: उसे यदि निश्चय-कोटि में नहीं तो सम्भव-कोटि में अवश्यमेव रख सकते हैं । दूसरी परम्परा के अनुसार प्राचार्य जिनभद्र वीर निर्वाण 1115 में युगप्रधान बने । इसका उल्लेख धर्मसागरीय पट्टावली में है। इस युगप्रधान-काल को 60 या 65 वर्ष का गिनने से उनका स्वर्गवास विक्रम 705-710 में निश्चित होता है, किन्तु इसके साथ उक्त प्रति के उल्लेख का मेल नहीं बैठता, क्योंकि वह वि० 666 में लिखी गई थी, अतः उसका निर्माण उससे पहले ही पूर्ण हो चुका था । अन्तिम कृति होने के कारण उसके निर्माण और प्राचार्य की मृत्यु के समय में 10 या 15 वर्ष से अधिक के अन्तर की कल्पना भी नहीं की जा सकती। फिर भी यदि कल्पना करें कि, यह उल्लेख ग्रन्थ के निर्माण का सूचक है तो ऐसी दशा में इस ग्रन्थ की रचना के चालीस वर्ष बाद उनकी मृत्यु माननी पड़ेगी, किन्तु कोट्टार्य का उल्लेख इसमें स्पष्ट रूप से बाधक है, अतः धर्मसागरीय पट्टावली में वर्णित समय से विचारश्रेणी में प्रतिपादित समय अधिक उपयुक्त है; अर्थात् प्राचार्य जिनभद्र का स्वर्गवास अधिक से अधिक वि० 650 में हुअा, यह मानना अधिक ठीक है। ऐसी जनश्रुति है कि, प्राचार्य जिनभद्र की पूर्ण प्रायु 104 वर्ष की थी। उसके अनुसार उनका समय वि० 545 से 650 तक माना जा सकता है, जब तक इसके विरुद्ध प्रमाण न मिले, तब तक हम आचार्य जिनभद्र के इस समय को प्रामाणिक मान सकते हैं । उनके ग्रन्थों में उपलब्ध होने वाले उल्लेखों की शोध करने पर भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता जो इस मान्यता में बाधक हो । सामान्यतः उनके ग्रन्थों में आचार्य सिद्धसेन, पूज्यपाद, दिग्नाग जैसे प्राचीन आचार्यों के मतों का निर्देश है, किन्तु वि० 650 के बाद के किसी भी प्राचार्य का उल्लेख उनके ग्रन्थों में देखने में नहीं आता। जिनदास की चूणि में जिनभद्र के मत का उल्लेख मिलता है। इससे भी उक्त समयावधि का समर्थन हो जाता है। 1. प्राचार्य हरिभद्र के समय के विषय में यह उल्लेख भ्रान्त है। यह बात आचार्य जिनविजयजी ने सप्रमाण अपने लेख में सिद्ध की है, वह उचित है; फिर भी आचार्य जिनभद्र का समय अभ्रान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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