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________________ प्रस्तावना 33 गाथाओं के अाधार पर निर्णय किया है कि, उनकी रचना वि० सं० 666 में हुई । वे गाथाएँ "पंच सता इगतीसा सगरिणवकालस्स बट्टमारणस्स । तो चेत्तपुण्णिमाए बुधदिण सातिमि एक्खत्ते ॥ रज्जे ण पालणपरे सी [लाइ]च्चम्मि गरबरिंदम्मि । वलभीगगरीए इमं महवि..........."मि जिरणभवणे ॥" __ श्री जिनविजयजी इन गाथाओं का तात्पर्य यह बताते हैं कि, शक संवत् 531 में वलभी में जब शिलादित्य राज्य करते थे, तब चैत्र की पूर्णिमा, बुधवार तथा स्वाति नक्षत्र में विशेषावश्यक की रचना पूर्ण हुई। किन्तु मूल गाथाओं से उनका बताया हुअा तात्पर्य नहीं निकलता। इस गाथा में रचना के विषय में कुछ भी नहीं कहा गया है। टे हए अक्षरों को हम यदि किसी मन्दिर का नाम मानलें तो इन दोनों गाथाओं में कोई क्रिया ही नहीं है, इसलिए यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि, इस भाष्य की रचना शक संवत् 531 (वि० सं० 666) में हुई। इस बात की सम्भावना अधिक है कि, वह प्रति उस वर्ष लिखी गई और उस मन्दिर में रखी गई। गाथाओं का तात्पर्य रचना से नहीं, अपितु मन्दिर दर में स्थापित करने से है, यह बात निम्नलिखित कारणों से अधिक संगत प्रतीत होती है : 1. ये गाथाएँ केवल जैसलमेर की प्रति में ही मिलती हैं, अन्यत्र किसी भी प्रति में ये नहीं हैं, अत: यह मानना पड़ेगा कि ये गाथाएँ मूल कर्ता की नहीं, किन्तु प्रति के लिखे जाने और उक्त मन्दिर में रखे जाने की सूचक हैं। जो प्रति मन्दिर में रखी गई होगी, उसी की नकल जैसलमेर की प्रति होगी, अतः उसमें भी इन गाथानों के सम्मिलित हो जाने की सम्भावना है। हम यह अनुमान कर सकते हैं कि, इस प्रति के आधार पर दूसरी कोई प्रति नहीं लिखी गई, इसीलिए अन्य किसी प्रति में इनका समावेश नहीं हुआ। 2. यदि इन गाथामों को रचनाकाल सूचक माना जाए तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि, इन्हें प्राचार्य जिनभद्र ने बनाया। ऐसी दशा में उनकी टीका भी उपलब्ध होनी चाहिए, किन्तु जिनभद्र द्वारा प्रारम्भ की गई और आचार्य कोट्टार्य द्वारा पूर्ण की गई, विशेषावश्यक की सर्व-प्रथम टीका में, अथवा कोट्याचार्य और प्राचार्य हेमचन्द्र मलधारी की टीकायों में भी इन गाथाओं की टीका दृग्गोचर नहीं होती; यही नहीं, इन गाथाओं के अस्तित्व का भी संकेत नहीं मिलता । अत: हम कह सकते हैं कि, ये गाथाएँ आचार्य जिनभद्र की रचना नहीं हैं। अर्थात् हो सकता है कि, प्रनि की नकल करने वाले या करवाने वाले ने इन्हें लिखा हो। तब इन गाथाओं में उल्लिखित समय रचना संवत नहीं, किन्तु प्रति-लेखन संवत् सिद्ध होता है । कोट्टार्य के उल्लेख से यह भी सिद्ध होता है कि, प्राचार्य जिनभद्र की अन्तिम कृति विशेषावश्यक भाष्य है। कोट्टार्य ने यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि, उस भाष्य की स्वोपज्ञ टीका उनका स्वर्गवास हो जाने के कारण पूर्ण न हो सकी। __ अब यदि विशेषा० की यह प्रति शक संवत् 531 में अर्थात् वि० सं० 666 में लिखी गई, तो उसकी रचना का समय वि० 660 के बाद का तो हो ही नहीं सकता। हम यह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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