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सिद्धर्षि, नवांगवृत्ति के संशोधक द्रोणाचार्य जैसे प्रसिद्ध प्राचार्य भी इस निवृति कुल में हुए हैं, अतः इस बात में सन्देह नहीं कि यह कुल विद्वानों की खान के समान है ।
इस बात को छोड़कर उनके जीवन के सम्बन्ध में और कोई बात ज्ञात नहीं है । केवल उनका गुण वर्णन उपलब्ध होता है । उसका सार यह है कि, वे एक महाभाष्यकार थे, तथा प्रवचन के यथार्थ ज्ञाता और प्रतिपादक थे । उनके गुणों का व्यवस्थित वर्णन उनके द्वारा रचित जीतकल्प-सूत्र के टीकाकार ने किया है। उसके आधार पर मुनि श्री जिनविजयजी ने at froर्ष निकाला है, वह यह है । - तत्कालीन प्रधान प्रधान श्रुतधर भी इनका बहुत मान करते थे । वे श्रुत व श्रुतेतर दोनों शास्त्रों के कुशल विद्वान् थे । जैन सिद्धान्तों में ज्ञान-दर्शन के क्रमिक उपयोग का जो विचार किया गया है, वे उसके समर्थक थे । अनेक मुनि ज्ञानाभ्यास के निमित्त उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे । भिन्न-भिन्न दर्शनों के शास्त्रों तथा लिपि-विद्या, गणित शास्त्र, छन्दः शास्त्र और व्याकरण आदि शास्त्रों में उनका अनुपम पाण्डित्य था । परसमय के आगम में भी वे विशेष निपुण थे । वे स्वाचार पालन में तत्पर थे तथा सर्व जैन श्रमणों में मुख्य थे ।
जब तक और नई बातें ज्ञात न हों, तब तक उक्त गुणवर्णन से ही उनके व्यक्तित्व की कल्पना कर हमें सन्तोष रखना चाहिए ।
सत्ता-समय
गणधरवाद
वीर निर्वाण सं० 980 (वि० सं० 510; ई० स० 453) में वालभी वाचना के समय आगम व्यवस्थित हुए और उन्हें अन्तिम रूप प्राप्त हुआ । उसके बाद उनकी सर्वप्रथम पद्यटीकाएँ 'प्राकृत भाषा में लिखी गईं । आज-कल उपलब्ध होने वाली ये प्राकृत टीकाएँ नियुक्ति के नाम से प्रसिद्ध हैं । उन सब के प्रणेता प्राचार्य भद्रबाहु हैं । उनका समय वि० सं० 562 ( ई० स० 505) के लगभग है, अतः हम मान सकते हैं कि, ग्रागम के वालभी संकलन के बाद के 50 वर्षों में वे लिखी गई होंगी । इस नियुक्ति की पद्यबद्ध प्राकृत टीका लिखी गई, जो मूलभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है, इस मूल भाष्य के कर्त्ता के विषय में अभी तक कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका है; किन्तु प्राचार्य हरिभद्र आदि के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि श्राव० नि० की प्रथम टीका के रूप में किसी भाष्य की रचना हुई थी । सम्भव है कि, उसे प्राचार्य जिनभद्र के भाष्य से पृथक् करने के लिए आचार्य हरिभद्र ने 'मूल भाष्य' का नाम दिया हो। कुछ भी हो, किन्तु इस मूल भाष्य के बाद प्राचार्य जिनभद्र ने प्रव० नि० के सामायिक अध्ययन तक प्राकृत-पद्य में जो टीका लिखी, वह विशेषावश्यक भाष्य के नाम से विख्यात है । अतः श्राचार्य जिनभद्र के विशेषा० के समय की पूर्वावधि नियुक्ति कर्त्ता भद्रबाहु के समय से और पूर्वोक्त मूलभाष्य के समय से पहले नहीं हो सकती । आचार्य भद्रबाहु वि० सं० 562 के लगभग विद्यमान थे, अतः विशेषा० की पूर्वावधि वि० सं० 600 से पहले सम्भव नहीं है ।
मुनि श्री जिनविजयजी ने जैसलमेर की विशेषा० की प्रति के अन्त में लिखित दो
जीतकल्प सूत्र की प्रस्तावना पृष्ठ 7.
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