________________
प्रस्तावना
31
कि इस विषय में इस लेख के अतिरिक्त अन्य प्रमाण नहीं मिल सकता । पुनश्च, ये मूर्तियाँ अंकोट्टक में मिली हैं, अतः यह अनुमान भी शक्य है कि वलभी के उपरान्त उस काल में भरुच के पास-पास भी जैनों का प्रभाव था और प्राचार्य जिनभद्र का इस ओर भी विहार हुआ होगा।
इस लेख में प्राचार्य जिनभद्र को क्षमाश्रमण नहीं कहा गया है, किन्तु वाचनाचार्य कहा है। इस विषय में कुछ विचार करना आवश्यक है । परम्परा के अनुसार वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर तथा वाचक एकार्थक शब्द माने गए हैं । वाचक और वाचनाचार्य भी एकार्थक हैं, अतः परम्परा के अनुसार वाचनाचार्य और क्षमाश्रमण शब्द एक ही अर्थ के सूचक हैं । फिर भी यह विचार करने योग्य बात है कि ये शब्द एकार्थक क्यों माने गए ? आचार्य जिनभद्र ने स्वयं वाचनाचार्य पद का उल्लेख किया है, तथापि उनकी विशेष प्रसिद्धि क्षमाश्रमण के नाम से क्यों हुई ? इन प्रश्नों का उत्तर कल्पना के आधार पर देना चाहें तो दिया जा सकता है।
प्रारम्भ में 'वाचक' शब्द शास्त्रविशारद के लिए विशेष प्रचलित था, परन्तु जब वाचकों में क्षमाश्रमणों की संख्या बढ़ती गई, तब क्षमाश्रमण शब्द भी वाचक के पर्याय-रूप में प्रसिद्ध हो गया; अथवा क्षमाश्रमण शब्द अावश्यक सूत्र में सामान्य गरू के अर्थ में भी प्रयुक्त हुअा है, अतः सम्भव है कि, शिष्य विद्या-गुरु को क्षमाश्रमण के नाम से सम्बोधित करते रहे हों, इसलिए यह स्वाभाविक है कि क्षमाश्रमण वाचक का पर्याय बन जाए। जैन समाज में जब वादियों की प्रतिष्ठा स्थापित हुई, तब शास्त्र-वैशारद्य के कारण वाचकों का ही अधिकतर भाग वादी नाम से विख्यात हुआ होगा; अतः कालान्तर में वादी का भी वाचक का ही पर्यायवाची बन जाना स्वाभाविक है। सिद्धसेन जैसे शास्त्रविशारद विद्वान् अपने को दिवाकर कहलाते होंगे अथवा उन के साथियों ने उन्हें 'दिवाकर' की पदवी दी होगी, इसलिए वाचक के पर्यायों में दिवाकर को भी स्थान मिल गया। प्राचार्य जिनभद्र का युग क्षमाश्रमणों का युग रहा होगा, अतः सम्भव है कि, उनके बाद के लेखकों ने उनके लिए 'वाचनाचार्य' के स्थान पर 'क्षमाश्रमण' पद का उल्लेख किया हो ।
आचार्य जिनभद्र का कुल 'निवृति कुल' था, यह तथ्य उक्त लेख के अतिरिक्त अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। भगवान महावीर के 17वें पट्ट पर प्राचार्य वज्रसेन हुए थे। उन्होंने सोपारक नगर के सेठ जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी के चार पुत्रों को दीक्षा दी थी। उनके नाम थे-नागेन्द्र, चन्द्र, निवृति और विद्याधर । भविष्य में इन चारों के नाम से भिन्न-भिन्न चार परम्पराएँ चलीं और वे नागेन्द्र, चन्द्र, निवृति तथा विद्याधर कुलों के नाम से प्रसिद्ध हुई। उक्त मूर्ति-लेख के आधार पर यह सिद्ध होता है कि, प्राचार्य जिनभद्र निवृति कुल में हुए । महापुरुष-चरित नामक प्राकृत-ग्रन्थ के लेखक शीलाचार्य, उपमिति-भव-प्रपंचा-कथा के लेखक
1. कहावली का उद्धरण देखें- सत्यप्रकाश अंक 196, पृ० 89. 2. खरतर गच्छ की पट्टावली देखें-जैन गुर्जरकविप्रो भाग 2, पृष्ठ 669 | 'निवृति' शब्द
के 'निवृत्ति, निर्वृत्ति' ये रूप भी भिन्न-भिन्न स्थानों में दृग्गोचर होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org