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________________ 30 गणधरवाद मूल स्रोत भी पश्चिम देश में ही है, अतः हम सहज ही यह अनुमान कर सकते हैं कि प्रथम शताब्दी के बाद जैन साधुओं का विहार विशेषतः पश्चिम में हुअा । जैन दृष्टि से वलभी नगरी का महत्त्व उसके नष्ट होने तक रहा है और उसके नष्ट होने के बाद वल भी के निकटवर्ती पालीताना आदि नगर जैन धर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण केन्द्र रहे हैं। प्राचार्य जिनभद्र-कृत विशेषावश्यक भाष्य की प्रति शक संवत् 531 में लिखी गई और वलभी के किसी जैन मन्दिर को समर्पित की गई। इससे ज्ञात होता है कि वलभी नगरी से प्राचार्य जिनभद्र का कोई सम्बन्ध होना चाहिये । इससे हम यह अनुमान मात्र कर सकते हैं कि वलभी और उसके आसपास उनका विहार हुआ होगा। "विविधतीर्थकल्प' में मथुरा-कल्प के प्रसंग में प्राचार्य जिनप्रभ ने लिखा है कि-प्राचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने मथुरा में देवनिर्मित स्तूप के देव की एक पक्ष की तपस्या कर आराधना की और दीमक द्वारा खाए हुए महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया । इससे यह तथ्य ज्ञात होता है कि जिनभद्र ने वलभी के उपरान्त मथुरा में भी विचरण किया था और उन्होंने महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया था। अभी कुछ ही समय पूर्व अंकोट्टक (अर्वाचोन, अकोटा गाँव) से प्राप्त हुई प्राचीन जैन मूर्तियों का अध्ययन करते हुए श्री उमाकान्त प्रेमानन्द शाह को दो अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रतिमाएँ मिली हैं। उन्होंने जैन सत्यप्रकाश (अंक 196) में उन मूर्तियों का परिचय दिया है । कला तथा लिपि विद्या के आधार पर उन्होंने इन्हें ई० सन् 550 से 600 तक के काल में रखा है। उन्होंने यह भी निर्णय किया है कि इन मूर्तियों के लेख में जिन आचार्य जिनभद्र का नाम है, वे विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता क्षमाश्रमण जिनभद्र ही हैं, अन्य नहीं । उनकी वाचनानुसार एक मूर्ति के पभासण (पद्मासन) के पृष्ठ भाग में 'नों देवधर्मोयं निवृतिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है और दूसरी मूर्ति के भा-मण्डल में 'प्रों निवृतिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' यह लेख उपलब्ध होता है । उपर्युक्त वर्णन से निश्चयरूपेण ये तीन नई बातें ज्ञात होती हैं-प्राचार्य जिनभद्र ने इन मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया होगा, उनके कुल का नाम निवृति कुल था और वे वाचनाचार्य कहलाते थे। इससे एक तथ्य यह भी फलित होता है कि वे चैत्यवासी थे, क्योंकि लेख में लिखा है कि 'जिनभद्र वाचनाचार्य का' । इस तथ्य को इस कारण विचाराधीन समझना चाहिए 1. इत्थं देवनिम्मिग्रथूभे पक्खक्खमणेण देवयं पाराहित्ता जिणभद्दखमासमणेहि उद्देहिया भक्खियपुत्थयपत्तत्तणेण तु भग्गं महानिसीहं संधिअं । वि० तीर्थकल्प पृ० 19. 2. श्री शाह की वाचना प्रामाणिक है और उनका लिपि के समय का अनुमान भी ठीक है। इस बात का समर्थन बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के प्राचीन लिपि विशारद प्रो० अवधकिशोर ने भी किया है, अतः इसमें शंका का अवकाश नहीं है । 3. श्री शाह ने भी यह संकेत किया है, परन्तु कारण अन्य बताया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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