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________________ प्रस्तावना आचार्य जिनभद्र का विशेषावश्यक महाग्रन्थ जैन आगमों को समझने की कुञ्जी है । इस ग्रन्थ में सभी महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है । जैसे बौद्ध-त्रिपिटक का सारग्राही ग्रन्थ 'विशुद्धिमार्ग' है, उसी प्रकार विशेषावश्यक भाष्य जैन आगम का सारग्राही है । साथ ही उसकी यह विशेषता है कि उसमें जैन तत्व का निरूपण केवल जैन दृष्टि से ही नहीं किया गया, अपितु अन्य दर्शनों की तुलना में जैन तत्वों को रखकर समन्वयगामी मार्ग द्वारा प्रत्येक विषय की चर्चा की गई है। विषय-विवेचन के प्रसंग में जैनाचार्यों के उन विषयों के सम्बन्ध में अनेक मतभेदों का खण्डन करते हुए भी वे उन पर पांच नहीं आने देते । कारण यह है कि ऐमे प्रसंग पर वे आगमों के अनेक वाक्यों का आधार देकर अपना मन्तव्य उपस्थित करते हैं । किसी भी व्यक्ति की कोई भी व्याख्या यदि आगम के किसी वाक्य से विरुद्ध हो, तो वह उन्हें असा प्रतीत होती है और वे प्रयत्न करते हैं कि, उसके तर्क-पुरस्सर समाधान की शोध की जाए । उन्होंने आगम के परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले मन्तव्यों का समाधान ढूँढ़ने का भी प्रयास किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि, विरोधी प्रतीत होने वाले वाक्यों की भी परस्पर उपपत्ति कैसे हो सकती है । सच बात तो यह है कि श्राचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यक भाष्य लिखकर जैनागमों के मन्तव्यों को तर्क की कसौटी पर कसा है और इस तरह इस काल के तार्किकों की जिज्ञासा को शान्त किया है । जिस प्रकार वेद-वाक्यों के तात्पर्य के अनुसन्धान के लिए मीमांसा दर्शन की रचना हुई, उसी प्रकार जैनागमों के तात्पर्य को प्रकट करने के लिए जैन-मीमांसा के रूप में ग्राचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यक की रचना की । 29 जीवन और व्यक्तित्व : आचार्य जिनभद्र का अपने ग्रन्थों के कारण जैन धर्म के इतिहास में प्रत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है, तथापि इस महान् प्राचार्य के जीवन की घटनाओं के सम्बन्ध में जैन ग्रन्थों में कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती, इसे एक आश्चर्यजनक घटना समझना चाहिए । वे कब हुए और किन के शिष्य थे ? इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते हैं और वे भी 15 वीं या 16 वीं शताब्दी में लिखी गई पट्टावलियों में हैं । अतः हम यह मान सकते हैं कि उन्हें सम्यक प्रकारेण पट्ट-परम्परों में संभवतः स्थान नहीं मिला, परन्तु उनके साहित्य का महत्व समझकर तथा जैन साहित्य में सर्वत्र उनके ग्रन्थों के आधार पर लिखे गए विवरण देखकर उत्तरकालीन आचार्यो ने उन्हें महत्त्व प्रदान किया, उन्हें युगप्रधान बना डाला और प्राचार्य परम्परा में भी कहीं न कहीं उन्हें सम्मिलित करने का प्रयत्न किया । यह प्रयत्न कल्पित था, अतः यह बात स्वाभाविक है कि उसमें मतैक्य न हो । इसीलिए हम देखते हैं कि उनके सम्बन्ध में यह प्रसंगत उल्लेख भी उपलब्ध होता है कि वे प्राचार्य हरिभद्र के पट्ट पर बैठे । आगमों से यह सिद्ध होता है कि भगवान् महावीर के समय में पूर्व देश में जैन धर्म का प्राबल्य था, किन्तु बाद में उसका केन्द्र पश्चिम तथा दक्षिण की ओर हटता गया । ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग मथुरा में तथा पाँचवी शताब्दी के लगभग वलभी नगरी में जन धर्म का प्राबल्य दिखाई देता है । क्रमशः इन दोनों स्थानों में ग्रागम की वाचना हुई । इससे उक्त काल में दोनों नगरों का महत्व सिद्ध होता है । दिगम्बर शास्त्र षट्खण्डागम की रचना का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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