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गणधरवाद
लिखा । किन्तु इन दोनों कृतियों में अधिकतर प्रयत्न इसी बात का किया गया है कि दार्शनिक जगत् का तटस्थ अवलोकन कर अपने दर्शन को व्यवस्थित किया जाए, अन्य दार्शनिकों की युक्तियों का खण्डन करने का कार्य गौण है।
प्राचार्य सिद्धसेन के विषय में यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे दार्शनिक अखाड़े में एक प्रबल प्रतिमल्ल के रूप में अपने ग्रन्थों को लेकर उपस्थित हुए। उनके ग्रन्थों में जैन दर्शन की व्यवस्था के बीज विद्यमान हैं, किन्तु उनमें अन्य दार्शनिकों की छोटी-बड़ी सभी महत्वपूर्ण युक्तियों का खण्डन करने का प्रयास नहीं किया गया है । छोटी-छोटी युक्तियों के वाग्जाल में न पड़कर केवल महत्त्व की बातों का खण्डन-मण्डन उनके ग्रन्थों में है। प्राचार्य समन्तभद्र के ग्रन्थों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है । उन्होंने विस्तार की अपेक्षा संक्षेप को अधिक महत्व दिया है। दोनों केवल प्रबल वादी ही नहीं, प्रत्युत् महावादी हैं । तथापि उनके ग्रन्थ, उद्द्योतकर अथवा कुमारिल के समान अत्यधिक बारीकी में नहीं जाते । इन दोनों प्राचार्यों ने तर्क-प्रतितर्क का जाल बिछाने का कार्य नहीं किया, किन्तु निष्कर्ष में उपयोगी युक्तियों देकर निर्णय किया है । वे युक्तियाँ ऐसी अकाट्य हैं कि उनके ही आधार पर उनकी टीकानों में प्रचुर मात्रा में विवादों की रचना की जा सकी है । सारांश यह है कि इन दोनों अचार्यों ने तर्कजाल में न पड़कर केवल अन्तिम कोटि का तर्क कर संतोष किया है।
किन्तु इससे उनके ग्रन्थों में ऐसा सामर्थ्य नहीं पाया जिससे कि उन्हें प्राचार्य दिग्नाग, कुमारिल अथवा उद्द्योतकर जसे मल्लों के सन्मुख प्रतिमल्ल के रूप में रखा जा सके । अतिविस्तार के सामने अतिसंक्षेप ढक जाता है । जब उनके ग्रन्थों की 'वादमहार्णव' जैसी तथा 'प्रष्टसहस्री' जैसी टीकाएँ तयार हुई, तभी उन ग्रन्थों की प्रतिमल्लता की पोर ध्यान जाता है। किन्तु प्राचार्य जिनभद्र के विषय में यह बात नहीं है । उनके ग्रन्थ' विशेषावश्यक भाष्य' की रचना ऐसी शैली में हुई है कि उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि दार्शनिक जगत् के अखाड़े में सर्वप्रथम जैन प्रतिमल्ल का स्थान यदि किसी को दिया जाए तो वह प्राचार्य जिनभद्र को ही दिया जा सकता है। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने दर्शन के सामान्य तत्वों के विषय में ही तर्कवाद का अवलम्बन नहीं लिया, किन्तु जैन दर्शन की प्रमाण एवं प्रमेय सम्बन्धी छोटी-बड़ी महत्वशाली सभी बातों के सम्बन्ध में तर्कवाद का प्रयोग कर दार्शनिक अखाड़े में जैन दर्शन को एक सर्वतन्त्र स्वतन्त्र रूप से ही नहीं प्रत्युत सर्वतन्त्र समन्वय रूप में भी उपस्थित किया है। उनकी युक्तियाँ और तर्क-शैली इतनी अधिक व्यवस्थित है कि आठवीं शताब्दी में होने वाले महान् दार्शनिक हरिभद्र तथा बारहवीं शताब्दी में होने वाले प्रागमों के समर्थ टीकाकार मलयगिरि भी ज्ञान-चर्चा में आचार्य जिनभद्र की ही युक्तियों का प्राश्रय लेते हैं । इतना ही नहीं, अपितु अठारहवीं शताब्दी में होने वाले नव्यन्याय के असाधारण विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी भी ‘अपने जैन तर्क परिभाषा, अनेकान्त व्यवस्था, ज्ञान बिन्दु' आदि ग्रन्थों में उनकी दलीलों को केवल नवीन भाषा में उपस्थित कर सन्तोष मानते हैं, उन ग्रन्थों में अपनी ओर से नवीन वृद्धि शायद ही की गई है । इससे स्पष्ट है कि सातवीं शताब्दी में आचार्य जिनभद्र ने सम्पूर्ण-रूपेण प्रतिमल्ल का कार्य सम्पन्न किया था।
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