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प्रस्तावना
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अन्य नियुक्तियों में भी आवश्यक के समान प्राचार्य ने प्रारम्भ में उन-उन मूल ग्रन्थों के प्रादुर्भाव की कथा का वर्णन किया है, किन्तु यह वर्णन उसी ग्रन्थ में है जिसकी उत्पत्ति की कथा आवश्यक से भिन्न है। अन्यत्र अध्ययनों के नाम और विषयों का निर्देश कर, उनकी निष्पत्ति का मूल-स्थान या ग्रन्थ बताकर और प्रायः प्रत्येक अध्ययन के नाम का निक्षेप कर व्याख्या की गई है । अध्ययन के अन्तर्गत किसी महत्वपूर्ण शब्द अथवा उसमें विद्यमान मौलिक भाव को लेकर प्राचार्य ने उसका अपने ढंग से विवेचन करके ही सन्तोष माना है । अन्य ग्रन्थों में आवश्यक के समान सूत्र-स्पर्शी नियुक्ति अत्यन्त अल्प दिखाई देती है। यही कारण है कि अन्य ग्रन्थों की नियुक्ति का परिमाण मूल-ग्रन्थ की अपेक्षा बहुत कम है । प्रावश्यक की स्थिति इससे विपरीत है।
5. प्राचार्य जिनभद्र
पूर्व-भूमिका
इस विश्व का मूल सत् है अथवा असत् है, इस विषय में दो परस्पर विरोधी वादों का खण्डन-मण्डन उपनिषदों में उपलब्ध होता है । त्रिपिटक तथा गणिपिटक-जैन आगम में भी विरोधी का खण्डन करने की प्रवृत्ति दृग्गोचर होती है, अतः हम यह विश्वास कर सकते हैं कि, वाद-विवाद का इतिहास अति प्राचीन है और उत्तरोत्तर उसका विकास होता रहा है । किन्तु दार्शनिक विवादों के इतिहास में नागार्जुन से लेकर धर्मकीर्ति के समय तक का काल ऐसा है जिसमें दार्शनिकों की वाद-विवाद सम्बन्धी प्रवृत्ति तीव्रतम हो गई है । नागार्जुन, वसुबन्धु और दिग्नाग जैसे बौद्ध प्राचार्यों के तार्किक प्रहारों के वार सभी दर्शनों पर सतत् पड़े थे और उनके प्रतीकार के रूप में भारतीय दर्शनों में पुनर्विचार की धारा प्रवाहित हुई थी। न्यायदर्शन में वात्स्यायन और उद्योतकर, वैशेषिक दर्शन में प्रशस्तपाद, मीमांसा दर्शन में शबर और कुमारिल जैसे प्रौढ़ विद्वानों ने अपने दर्शनों पर होने वाले प्रहारों के प्रत्युत्तर दिए । यही नहीं, उन्होंने इस व्याज से स्वदर्शन को भी नया प्रकाश प्रदान कर उन्हें सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न किया । दार्शनिक विवादके इस अखाड़े में जैन तार्किकों ने भी भाग लिया और अपने आगम के आधार पर जैन दर्शन को तर्क-पुरस्सर सिद्ध करने का प्रयत्न किया।
ऐसा प्रतीत होता है कि, आचार्य उमास्वाति ने इस विवाद से 'तत्वार्थ-सूत्र' लिखने की प्रेरणा प्राप्त की, परन्तु उन्होंने उन सब का खण्डन कर जैन दर्शन को स्वकीय रूप प्रदान करने का कार्य नहीं किया, उन्होंने केवल जैन दर्शन के तत्वों को सूत्रात्मक शैली में उपस्थित किया और विवाद का काम बाद में होने वाले पूज्यपाद, अकलंक, सिद्धसेन गणि, विद्यानन्द प्रादि टीकाकारों के लिए छोड़ दिया ।
प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इस विवाद में से जैन न्याय की आवश्यकता का अनुभव कर 'न्यायावतार' जैसी अत्यन्त संक्षिप्त कृति की रचना की और जैन-न्याय में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले अनेकान्तवाद के मूल में स्थित नयवाद का विवेचन करने के लिए 'सन्मतितर्क'
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