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________________ 62 प्रचार के गली-कूचों में भ्रमण किया है, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है । यह भी कहा ज सकता है कि उन्होंने जैन तत्वज्ञान का भी पान किया हुआ है । इसी उपोद्घातनिर्युक्ति में ही उन्होंने गणधरवाद के बीज रख दिये हैं । इस विषय की विशेष चर्चा आगे की जायेगी । यह बात तो निश्चित है कि गणधरों की शंकाओं के जिन विषयों का उन्होंने निर्देश किया है, उनमें उन सब महत्वपूर्ण विषयों का समावेश हो जाता है जिनकी उस काल में भारतीय दर्शनों में चर्चा होती थी । गणधर ब्राह्मण थे, अत उनकी शंकाओं के आधार वेद - वाक्य थे, यह बात प्राचार्य ने नियुक्ति में प्रतिपादित की है । इसका उल्लेख नियुक्ति से पूर्व किसी भी ग्रन्थ में नहीं है । प्रतः विद्वान् सहज ही यह बात स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते हैं कि यह उल्लेख प्राचार्य भद्रबाहु की प्रतिभा का ही परिणाम है । आवश्यक सूत्र उपोद्घात निर्युक्ति के उत्तरवर्ती ग्रावश्यक निर्युक्ति ग्रन्थ में सूत्र का स्पर्श करते हुए के छह अध्ययनों की व्याख्या की गई है । - गणधरवाद व्युत्पत्ति दृष्टिगोचर होती है । यहाँ इसका एक उदाहरण पर्याप्त होगा- 'अरिहंत' पद जैन और बौद्ध दोनों परम्पराम्रों में सामान्य है । बुद्धघोष ने 'विसुद्धि-मग्ग' में उसकी व्युत्पत्ति निम्नप्रकार से की है : र्हत के लिए उन्होंने पालि में 'अरिहंत, अरहंत और ग्ररह' ये तीन शब्द दिये हैं । उनके क्रमशः दो, एक और दो अर्थों की उपपत्ति की गई है। (1) अरिहन्त अर्थात् (प्र) क्लेश रूपी अरि को आरात् दूर करने से अरिहन्त; (व) क्लेश रूपी प्ररि का हन्त अर्थात् हनन करने से अरिहन्त । (2) अरहन्त-संसार रूपी चक्र के आराम्रों का हनन करने से अरहन्त । (3) रह— (अ) वस्त्रपात्रादि के दान के 'ग्रह' योग्य होने से अरह । (ब) रह : - एकान्त में पाप 'अ' नहीं करने से अरह । प्रारकत्ता हतत्ता च किलेसारीन सो मुनि । हत संसार चक्कारो पच्चयादीनचारहो । न रहो करोति पापानि प्ररहं तेन बुच्चतीति । जैन परम्परा में अरिहंत और अरहंत इन दो प्राकृत शब्दों के अतिरिक्त एक श्ररुहंत शब्द भी उपलब्ध होता है । इसकी व्युत्पत्ति ऐसे की गई है अरुह - प्रर्थात् जो दुबारा न जन्मे, प्रकट न हो वह प्ररुहन्त । वैदिक परम्परा के व्युत्पत्ति प्रधान निरुक्त शास्त्र में भी ऐसी ही व्युत्पत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं । उदाहरणतः यास्क ने दुहिता (पुत्री) की व्युत्पत्ति तीन प्रकार से की है(1) दूर + हिता = जिसका हित साधन-वर की खोज कठिन है । (2) दूरे + हिता = जो माता-पिता आदि कुटुम्ब से दूर रहने पर ही हितावह है । जो सदा धन, वस्त्र आदि से माता-पिता का दोहन करती है । (3) दुह + इता = Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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