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________________ प्रथमावत्ति में लेखक का निवेदन विशेषावश्यक भाष्य महाग्रन्थ जब से पढ़ने में पाया तब से उसके अनुवाद और विवेचन की जो भावना मन में संग्रहीत कर रखी थी उसकी प्रांशिक पूर्ति इस गणधरवाद से होती है । इससे एक प्रकार का आनन्द होता है किन्तु कार्य त्वरित गति से करना था अतएव टिप्पणियों में विस्तार की आवश्यकता होने पर भी नहीं कर सका, यह कमी मन को कचोटती भी है । अनुवाद की संवादात्मक शैली मुझे भाई फतेचन्द बेलाणी का खरडा बाँचने से रुचिकर प्रतीत हुई। संवादात्मक शैली में प्रो० चिरवात्स्की कृत कितने ही दार्शनिक ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद भी देखने में आये थे और इस शैली में दार्शनिक ग्रन्थों के अनुवाद पठनीय बनते हैं ऐसा अनुभव भी किया था; इसलिये इस में मैंने इसी शैली का प्राश्रय लिया है। इस ग्रन्थ का कार्य पूज्य पण्डित श्री सुखलालजी को प्रेरणा से मैंने स्वीकार किया था और प्रकाशन से पूर्व उन्होंने एक-एक अक्षर पढ़कर करने योग्य संशोधन भी किये हैं तथा जहाँ पुनर्लेखन प्रावश्यक था वहाँ उनकी सूचना के अनुसार मैंने वैसा भी किया है। ऐसा करके मैं मोटे रूप में उनको अांशिक सन्तोष दे सका हूँ । पूज्य पण्डितजी ने इस कार्य में जो स्वाभाविक रस लिया है, उसके लिये धन्यवाद के दो शब्द पर्याप्त नहीं हैं। वस्तुतः यह कार्य उन्हीं का हो और में उनके कार्य में हाथ बटा रहा हूँ ऐसा अनुभव मैने निरन्तर किया है। इसलिये इस कृति को मैं मेरी न मान कर, उनकी ही कृति मान लेता हूँ तब उनको धन्यवाद देने का अधिकारी मैं कैसे हो सकता हूँ ? सहजस्नेही भाई रतिलाल दीपचन्द देसाई ने इस कृप्ति के प्रथमादर्श को प्राद्यन्त पढ़कर पण्डितजी को सुनाया ही नहीं, अपितु सुधारने योग्य सूचनायें भी प्रदान की, एतदर्थ यहाँ उनको धन्यवाद देना आवश्यक है। ___ यह कार्य मेरे सिर पर प्रा पड़ने में निमित्त रूप श्री फतेचन्द लेलाणी भी हैं, इसलिए उनका भी यहाँ प्राभार मानता हूँ। उन्हीं के अनुवाद का कच्चा खरडा मेरे सामने था, अतएव इस अनुवाद को संवादात्मक शैली में करने की तात्कालिक सूझ के लिये भी मैं उनका प्राभारी हूँ। इस ग्रन्थ के समस्त प्रूफ संशोधन का नीरस कार्य मान्यवर श्री के० का० शास्त्री ने सप्रेम किया है और ग्रन्थ की वाह्य सज्जा में जो कुछ भी सौष्ठव है वह उन्हीं की बदौलत है, अतएव उनका विशेष प्राभार मानना भी मेरा कर्तव्य है। अनुवाद का मुद्रण होने के पश्चात् प्रस्तावना प्रादि अन्य सामग्री में पांच-छह मास के विलम्ब को निभाने वाले और ग्रन्थ को सुन्दर बनाने की प्रेरणा देने वाले मान्यवर रसिकलाल भाई परीख, अध्यक्ष भो० जे० संशोधन विद्याभवन का विशेष रूप से ऋणी हूँ। पूज्यपार मुनिराज श्री पुण्यविजयजी ने स्वयं के लिये करवाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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