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दा वष पूर्व राजस्थान प्राकृत भारतो संस्थान की ओर से जैन जगत् के उद्भट दार्शनिक विद्वान् श्री दलसुख भाई मालवणिया से अनुरोध किया गया था कि आपके द्वारा लिखित, अनुदित या सम्पादित कोई ग्रन्थ प्राकृत भारती को प्रकाशनार्थ प्रदान करें तो संस्थान को अतीव हार्दिक प्रसन्नता होगी। तत्क्षण ही श्री मालवणिया जी ने अनुरोध को सहजभाव से सहर्ष स्वीकार करते हुये कहा कि गणधरवाद का हिन्दी अनुवाद जो मैंने कुछ वर्षों पूर्व प्रो० पृथ्वीराज जैन से करवाया था उसे भेंट स्वरूप ले जाइये और श्री महोपाध्याय विनयसागरजी से संशोधन करवा कर प्रकाशित कर दीजिये।
__ श्री मालवरिणया जी ने नैसर्गिक भाव से गणधरवाद का हिन्दी अनुवाद प्रकाशनार्थ प्रदान किया अतएव हम उनके हृदय से आभारी हैं।
प्रो० पृथ्वीराज जैन एम. ए. (जिनका गत वर्ष ही स्वर्गवास हो गया है) ने इस अतिगहन दार्शनिक ग्रन्थ का जिस सूझ-बूझ और परिष्कृत शैली में हिन्दी का अनुवाद कर साहित्य जगत् को कृति प्रदान की है, उसके लिये भी संस्थान की ओर से उनके हम कृतज्ञ हैं।
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के संयुक्त सचिव एवं प्रमुख विद्वान् महोपाध्याय श्री विनयसागर जी ने प्रस्तुत अनुवाद का संशोधन एवं इसका सम्पादन जिस निष्ठा से किया और सह सम्पादक के रूप में श्री ओंकारलाल जी मेनारिया ने इस संशोधन आदि में जो सहयोग प्रदान किया उसके लिये भी ये दोनों साधुवाद के पात्र हैं।
श्री जितेन्द्र संघी, अजन्ता प्रिन्टर्स जयपुर भी इस पुस्तक के मुद्रण के लिये धन्यवाद के पात्र हैं।
अन्त में पाठकों से अनुरोध है कि दृष्टिदोष अथवा प्रेस की असावधानी से जो भी अशुद्धियाँ या त्रुटियाँ रह गई हैं उसे क्षन्तव्य समझे।
उमरावमल ढड्ढ़ा
अध्यक्ष टीकमचन्द हीरावत
सचिव सभ्य ग ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपूर
राजरूप टाँक
अध्यक्ष देवेन्द्रराज मेहता
सचिव राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर
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