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________________ प्रकाशकीय राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के १०वें पुष्प के रूप में गणधरवाद का प्रकाशन प्रस्तुत करते हुये हमें हादिक प्रसन्नता हो रही है। जैन दार्शनिक जगत में प्राचार्य जिनभद्र गरिण क्षमाश्रमण रचित विशेषावश्यक महाभाष्य एक अद्वितीय अतिगहन दार्शनिक ग्रन्थ है । गणधरवाद, इस ग्रन्थ का एक अध्याय-प्रकरण है जिसमें विश्व के प्रमुख दार्शनिक प्रश्नोंजीव का अस्तित्व, कर्मवाद, जीव-शरीर अभिन्नवाद, पंच भूतवाद, पूर्वजन्म पुनर्जन्म का अस्तित्व, पुण्य-पाप का अस्तित्व, देव-नारक का अस्तित्व और बन्ध-मोक्ष का अस्तित्व आदि का सांगोपांग विश्लेषण किया गया है। इस विश्लेषण की प्रमुख विशेषता यह है कि वैदिक विचारधारा की पृष्ठ भूमि में ही पूर्वोक्त वाद-विषयों का युक्तिसंगत निरूपण करते हुए इनका अस्तित्व सिद्ध किया गया है । प्राचार्य जिनभद्र ने अपने इस गणधरवाद नामक प्रकरण में श्रमण भगवान् महावीर और उनके शासन के प्रमुख संचालक ग्यारह गणधरों-इद्रभूति गौतम, अग्निभूति गौतम, वायुभूति गौतम, व्यक्त भारद्वाज, सुधर्म अग्निवैश्यायन, मण्डिक वशिष्ठ, मौर्यपुत्र काश्यप, अकम्पित गौतम, अचलभ्राता हरित, मेतार्य कौण्डिन्य और प्रभास कौण्डिन्य को जो पूर्व में वेद-विद्या के पारंगत एवं कर्मकाण्ड के धुरन्धर विद्वान् थे उनके साथ शंका-समाधान, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ करते हुये उनकी शंकाओं का निरसन कर उन्हें अपने शि य बनाये। इस ग्रन्थ पर वि० सं० ११७५ में चालुक्यवंशी गुर्जरेन्द्र सिद्धराज जयसिंह द्वारा सपूजित एवं सम्मानित मलधारगच्छीय श्री हेमचन्दाचार्य ने २८००० श्लोक परिमाण में प्राञ्जल भाषा में विशद टीका का निर्माण किया था। विशेषावश्यक ग्रन्थ गत गणधरवाद और उसको अभयदेवीय टीका का संवादात्मक शैलो में गूजराती अनुवाद जैन दर्शन के अप्रतिम विद्वान पं० दलसुखभाई मालवणिया ने सन् १९५२ में किया था जो गुजरात विद्या सभा, अहमदाबाद द्वारा सन् १९५२ में गणधरवाद के नाम से प्रकाशित किया गया था। श्री मालवणिया जी ने इस ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका में गणधरवाद में चचित तात्त्विक पदार्थों का उद्गम और क्रमिक विकास का वैदिक काल से लेकर समस्त भारतीय दार्शनिक विचारधारागों के अभिमत के आलोक में सप्रमाण जो दार्शनिक और शास्त्रीय इतिहास समीक्षात्मक अध्ययन के रूप में प्रस्तुत किया है, वह वस्तुतः अनुपम है और तज्ज्ञ विद्वानों के लिये एक स्वच्छतम निर्मल आदर्शदर्पण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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