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________________ गणधरवाद वस्तुतः समस्त टीकानों का उपोद्घात किया है। अतः जो कुछ उन्हें अन्यत्र अवश्यमेव लिखना था, उन सब विषयों का यहाँ समावेश कर दिया गया है। अन्य नियुक्तियों में इन विषयों की पुनरावृत्ति नहीं की गई है । आवश्यक नियुक्ति के केवल उपोद्घात में ही इतनी अधिक गाथाएँ हैं, कि उतनी कई पूरे नियुक्ति ग्रन्थों में दृग्गोचर नहीं होती। मूल आवश्यक सूत्र का परिमाण अन्य सूत्रों की अपेक्षा बहुत ही कम है, तथापि उसकी उपोदधात नियुक्ति का ही प्रमाण अन्य अनेक सम्पूर्ण नियुक्तियों के परिमाण से बहुत बढ़ जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि सर्वत्र उपयोगी होने के कारण इस उपोद्घात का विस्तृत होना अनिवार्य था । शास्त्रों की उत्पत्ति कैसे हुई, ? यह बताने के लिए प्राचार्य जैन-परम्परा के मूल तक पहुँचे हैं। उन्होंने न केवल भगवान महावीर के अपितु भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त जैन-परम्परा के समग्र इतिहास का उल्लेख किया है। भगवान् महावीर किस क्रम से तीर्थंकर बने, यह बात बताने के उद्देश्य से उन्होंने उनके अन्तिम जीवन का ही वर्णन नहीं किया, प्रत्युत भगवान् ऋषभदेव से भी पूर्वकालीन युग से भगवान् महावीर के पूर्वभवों की शोध की है और अन्त में उनके तीर्थंकर बनने तक के आरोह-अवरोह का इतिहास उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से क्रमबद्ध करने का सर्वप्रथम प्रयत्न किया है । वस्तुत: उपलब्ध जैन साहित्य में जैन-परम्परा का सर्वप्रथम सुव्यवस्थित इतिहास लिखने का श्रेय माचार्य भद्र बाहु को है । उनकी नियुक्ति में उपलब्ध तथ्यों के आधार पर ही उत्तरकालीन समस्त साहित्य में जैन-परम्परा की इतिहास सम्बन्धी बातों का वर्णन किया गया है। उनके द्वारा प्रतिपादित तथ्यों के आलोक में (ढाँचे में) कवियों ने रंग भर कर महापुराणों तथा महाकाव्यों की रचना की है। - उन्होंने साम्प्रदायिक परम्परा के कुछ ऐसे तथ्य वर्णित किए हैं जो उनके ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होते । निह्नवों की चर्चा इसका एक उदाहरण है। यदि नियुक्ति में इस विषय में विशेष वक्तव्य न होता, तो निह्नवों सम्बन्धी सम्पूर्ण इतिहास अन्धकार में ही रहता। ऐसी अन्य अनेक चर्चाएँ हैं । ___ सम्प्रदाय-प्रसिद्ध दृष्टान्त-माला को एक दो गाथाओं में ही बद्ध कर देने की उनकी विशेषता अद्वितीय है। साथ ही वे सारी कथा का सारांश जिस प्रकार संक्षेप में लिख देते हैं, वह उनकी अद्भुत कुशलता का उदाहरण है। उनकी लेखिनी में यह चमत्कार है कि जिस व्यक्ति ने वह कथा पूरी पढ़ी हो अथवा सुनी हो, उसके सम्मुख एक या दो गाथाओं में ही संपूर्ण कथा का चित्र उपस्थित हो जाता है । ___नियुक्ति की व्याख्यान-शैली का वर्णन करते हुए आचार्य ने स्वयं कहा है कि "प्राहरणहेउकारणपदनिवहमिरणं समासेरणं (गा० 86)।' अर्थात् इसमें दृष्टान्त-पद, हेतु-पद तथा कारण-पद का प्राश्रय लेकर संक्षिप्त निरूपण करना है । अन्यत्र भी प्राचार्य ने कहा है: "जिरणवयणं सिद्ध चेव भण्ई कत्थवी उदाहरणं । प्रासज्ज उ सोयारं हेऊवि कहंचिय भरणेज्जा ॥" दशव० नि. 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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