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________________ 22 उद्देशादि द्वार गाथा के पुरुष का अन्त में भाव -पुरुष रूप तात्पर्य बता कर कारण द्वार का कुछ विस्तृत वर्णन किया है। साथ ही संसार और मोक्ष के कारण की भी चर्चा की गई है । यहाँ इस बात का भी स्पष्टीकरण किया गया है कि तीर्थंकर किसलिए सामायिक अध्ययन का कथन करते हैं और गणधर उसे क्यों सुनते हैं ?4 प्रत्यय द्वार का भी ऐसे ही स्पष्टीकरण किया है ।" लक्षण द्वार में वस्तु के लक्षण की चर्चा की गई है। नय द्वार में सात मूल नयों के नामों का उल्लेख है और उनके लक्षण भी बताए गए हैं । प्रत्येक नय के सौ-सौ भेद होते हैं । पाँच मूल नयों को स्वीकार करने की मान्यता का भी निर्देश किया गया है । 8 नय के द्वारा दृष्टिवाद में प्ररूपणा की गई है । वस्तुतः जिन्दमत में एक भी सूत्र अथवा अर्थ ऐसा नहीं जो नय - विहीन हो । अतः नय- विशारद को चाहिए कि वह श्रोता की योग्यता देख कर नय सम्बन्धी विवेचन करे 110 किन्तु प्राजकल कालिक श्रुत में नयावतारणा नहीं होती । 11 आचार्य ने यह भी लिखा है कि ऐसा क्यों हुआ ? उनका कथन है कि, पहले कालिक का अनुयोग अपृथक् था, किन्तु आर्य वज्र के बाद कालिक का अनुयोग पृथक् किया गया है । 12 इस अवसर पर प्राचार्य ने आर्य वज्र की जीवन घटनाओं का अत्यन्त प्रादर पूर्वक वर्णन किया है और अन्त में लिखा है कि आर्य रक्षित ने चारों अनुयोग पृथक् किए 14 । आर्य रक्षित का भी संक्षिप्त जीवन लिखा गया है 125 श्रार्य रक्षित के शिष्य गोष्ठामाहिल से अबद्धिक निह्नव का प्रारम्भ हुआ । इस प्रकरण के अन्तर्गत भगवान् महावीर के शासन में प्राचार्य के समय तक जितने निह्नव हुए; उन सब का संक्षेप में वर्णन किया गया है 16 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. गणधरवाद आव० नि० गा० 736 श्राव० नि० गा० 737 आव० नि० गा० 740-741 आव० नि० गा० 742-748 आव० नि० गा० 749-750 श्राव० नि० गा० 751 आव० नि० गा० 754-758 आव० नि० गा० 759 आव० नि० गा० 760 आव० नि० गा० 761 श्राव० नि० गा० 762 श्राव० नि० गा० 763 आव० नि० गा० 764-772 श्राव० नि० गाe 774-777 आव० नि० गा० 775-776 आव० नि० गा० 778 - 788 (मलयगिरि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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