SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना एकत्रित हुआ था । यज्ञवाटिका के उत्तर में एकान्त स्थान में देवेन्द्र व दानवेन्द्र जिनेन्द्र की महिमा का गान कर रहे थे । 1 आचार्य ने समवसरण का भी विस्तृत वर्णन किया है | 2 दिव्य घोष का श्रवण कर यज्ञवाटिका में बैठे हुए लोगों को प्रसन्नता हुई कि उनके यज्ञ से आकृष्ट होकर देवता आ रहे हैं । भगवान् के 11 गणधर उस यज्ञवाटिका में आए हुए थे । वे सभी उच्चकुलों के थे । आचार्य ने उनके नाम भी गिनाए हैं । उन्होंने दीक्षा क्यों ली ? उनके मन में क्या-क्या संशय थे ? उनके शिष्यों की संख्या कितनी थी ? इन सब बातों का भी वर्णन किया है । 3 किन्तु जब उन्हें ज्ञात हुआ कि देवता तो जिनेन्द्र का यशोगान कर रहे हैं, तब अभिमानी इन्द्रभुति क्रोध के साथ भगवान् महावीर के पास प्राया । भगवान् ने उसे नाम- गोत्र से बुलाया । भगवान् ने उसके मन में विद्यमान संशय का कथन करके कहा कि, तुम वेद-पदों का अर्थ नहीं जानते, मैं तुम्हें उनका सच्चा अर्थ बताता हूँ । जब उसके संशय का निवारण हो गया, तब उसने अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा लेली । इसी प्रकार अन्य गणधरों की दीक्षा हुई 14 इस उल्लेख के बाद प्राचार्य ने गणधरों के सम्बन्ध में कुछ बातें लिखी हैं । शेष- द्वार इस पद्धति से उपोद्घात नियुक्ति के द्वारों में से निर्गम द्वार का वर्णन करते हुए सामायिक के अर्थकर्ता तीर्थंकर और सूत्रकर्ता गणधरों के निर्गम का प्रतिपादन किया । " तत्पश्चात् निर्गम के कालादि अन्य निक्षेपों की विवेचना है। 7 इस प्रसंग में विशेषतः इच्छाकार, मिथ्याकार आदि दस प्रकार की सामाचारी की व्याख्या विस्तार पूर्वक की गई है । क्षेत्र - काल विवेचन में प्रश्न किया है कि प्रस्तुत क्या है ? 'खेतम्मि कम्मि काले विभासियं जिरवरदेरण9 (733) अर्थात् किस क्षेत्र और किस काल में जिनवरेन्द्र ने (सामायिक को) प्रकट किया ? इसके उत्तर में कहा है कि, वैशाख शुक्ल एकादशी के दिन पूर्वाह्न में महासेन उद्यान में भगवान् ने सामायिक को प्रकट किया। अर्थात् इस क्षेत्र और इस समय में (सामायिक का) साक्षात् निर्गम है । अन्य क्षेत्रों और काल में उसका परम्परा से निर्गम है 110 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. आव० नि० गा० 539-542 आव० ति० गा० 543-590 आव० नि० गा० 591-597 आव० नि० गा० 598-641 21 आव० नि० गा० 642-659 'उक्तः सामायिकार्थ सूत्रप्रतॄणां तीर्थंकर - गणधराणां निर्गमः' आव० नि० हरि० टी० पृ० 257 गा० 660 का उत्थान | आव० नि० गा० 660 आव० नि० गा० 666-723 आव० नि० गा० 733 ( विशेषा० 2082) श्राव० नि० गा० 734 (विशेषा० 2083 2089 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy