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गणधरवाद
ऋषभदेव का प्रसंग उपस्थित हुआ, क्योंकि मरीचि ऋषभदेव के पौत्र थे। इस सम्बन्ध का प्रतिपादन करने के उपरांत प्राचार्य ने दीक्षा के प्रसंग से ऋषभ-चरित्र पुन: प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि, उन्हें एक वर्ष के बाद भिक्षा प्राप्त हुई। इस जगह प्राचार्य ने बताया है कि, 24 तीर्थंकरों का पारणा कौन-कौन से नगर में हुआ था , किस-किस ने उन्हें प्रथम भिक्षा दी, उनके नाम क्या थे। उस समय जो दिव्य वृष्टि हुई, उसका भी अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन किया गया है और यह भी लिखा है कि, भिक्षा देने वालों में कुछ उसी भव में तथा कुछ तीसरे भव में निर्वाण को प्राप्त हुए।
. भगवान् के दर्शनार्थ घर से निकलने पर भरत को उन के दर्शन नहीं हुए, अतः उसने उनके स्मरण में धर्म-चक्र की स्थापना की। इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि, ऋषभदेव एक हजार वर्ष तक छद्मस्थ पर्याय में विचरण करते रहे, उसके बाद उन्हें केवलज्ञान हुआ। अतः उन्होंने पाँच महाव्रतों की प्ररूपणा की और देवों ने उत्सव मनाया । केवलज्ञान की उत्पत्ति के दिन ही भरत की प्रायुधशाला में चक्र रत्न भी उत्पन्न हुआ। सेवकों ने तत्क्षण ही भरत को ये दोनों समाचार सुनाए। उसने विचार किया कि, पहले अपने पिता ऋषभदेव की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि चक्र केवल इसी भव में उपकारी है किन्तु पिताजी परलोक के लिए भी हितकारी हैं। भगवान् की माता मरुदेवी, पुत्र, पुत्री, पौत्र आदि उनके दर्शनार्थ
आए और उपदेश सुनकर कई दीक्षित हो गए । भगवान् महावीर के पूर्वभव के जीव मरीचि ने भी दीक्षा ली ।' भरत की दिग्विजय और भगवान् की धर्म विजय शुरू हुई। भरत ने अपने छोटे भाईयों से कहा कि, वे उसकी आज्ञा के अधीन हो जाएँ। उन्होंने भगवान् से परामर्श किया और उन के उपदेशानुसार बाहुबलि के अतिरिक्त सभी ने दीक्षा लेली। दूत से यह समाचार सुनकर बाहुबलि क्रुद्ध हुआ और उसने भरत को युद्ध के लिए ललकारा। सेना का संहार करने की अपेक्षा वे दोनों ही युद्ध कर लें, यह निश्चय हुआ। अन्त में भरत को अधर्मयुद्ध करते हुए देख बाहुबलि के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने दीक्षा ले ली।
इसके पश्चात् प्राचार्य ने परीषह सहने में असमर्थ होने के कारण मरीचि द्वारा त्रिदंडी सम्प्रदाय की स्थापना, ब्राह्मणों की उत्पत्ति और उनके पतन का वर्णन किया है। किसी अन्य
1. आव०नि० गा० 313
प्राव०नि० गा० 323-325 3. ग्राव०नि० गा०326-329
पाव०नि० गा० 330-334 प्राव०नि० गा० 335-341
प्राव०नि० गा.342-343 7. आव०नि० गा. 344-347
प्राव०नि० गा. 348-349 9. पाव०नि० गा० 350-366
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