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________________ प्रस्तावना 17 भगवान् ऋषभदेव-परिचय निर्गम के विवरण में प्राचार्य ने उददेशादि के समान निर्गम के भी नामादि छह निक्षेप करके उसके अनेक अर्थ बताए हैं। इस प्रसंग पर यह भी लिखा है कि, भगवान् महावीर का मिथ्यात्वादि से निर्गम-निकलना किस प्रकार हुआ? इस ब्याज से भगवान् महावीर के पूर्व-भवों की चर्चा करते हुए भगवान् ऋषभदेव के युग से पूर्वकालीन कुलकरों के समय से प्राचार्य ने इतिहास प्रारम्भ किया है। उसमें कुलकरों के पूर्व भव, जन्म, नाम, प्रमाण, संहनन, संस्थान, वर्ण, उनकी स्त्रियां, आयु, कितने वर्ष की आयु में कुलकर बने, मर कर कौन से भव में गए, उनके समय की नीति-इन विषयों की चर्चा की गई है। अन्तिम कुलकर नाभि की पत्नी का नाम मरु देवी था। विनीता भूमि में उनका निवास था। ऋषभदेव उनके पुत्र थे। ऋषभदेव पूर्वभव में वैरनाभ नाम के राजा थे। उस भव में उन्होंने तीर्थकर नाम-कर्म बांधा और वे सर्वार्थसिद्धि में देव हुए। वहां से च्युत होकर वे ऋषभदेव बने ।। यहां पर ऋषभदेव के भी अनेक पूर्व-भवों का वर्णन है । जिन बीस कारणों के आधार पर उनके जीव ने तीर्थकर नाम-कर्म का बधन किया, उनके नाम का भी निर्देश है। तीर्थंकर नाम-कर्म सम्बन्धी कुछ और बातों का भी उल्लेख है । उस के बाद ऋषभदेव के जीवन के विषय में निम्नलिखित बातों का वर्णन है :-जन्म, नाम, वृद्धि, जाति-स्मरण, विवाह, सन्तान, अभिषेक, राज्य-संग्रह । तत्पश्चात् आचार्य ने आहार, शिल्प, कर्म, परिग्रह, विभूषा इत्यादि 40 विषयों की चर्चा द्वारा उस युग का चित्र हमारे सम्मुख उपस्थित करने का प्रयत्न किया है और बताया है कि उस युग के निर्माण में ऋषभदेव की क्या देन थी 110 नियुक्ति में इन सब विषयों की चर्चा नहीं की गई, केवल उनका निर्देश है। ऋषभदेव का चरित्र-वर्णन करते हुए 24 तीर्थंकरों के चरित्र पर भी साधर्म्य, वैधर्म्य, सम्बोधन, परित्याग इत्यादि 21 विषयों के आधार पर विचार किया गया है ।11 यहां अत्यन्त संक्षिप्त रूप में 24 तीर्थंकरों के जीवन का सार दे दिया गया है। इन सब बातों का वर्णन क्यों करना पड़ा, इस का पूर्वापर सम्बन्ध बताते हुए प्राचार्य ने कहा है कि, सामायिक के निर्गम के विचार में भगवान् महावीर के पूर्वभवों की चर्चा के अन्तर्गत उन के मरीचि जन्म का विचार आवश्यक था, अतः भगवान् 5. प्राव०नि० गा० 145 प्राव०नि० गा० 146 प्राव. नि. गा० 150 पाव०नि० गा० 152 आव०नि० गा० 170 प्राव०नि० गा० 171-178 प्राव०नि० गा० 179-181 आव०नि० गा० 182-184 पाव०नि० गा० 185-202 प्राव०नि० गा0 203 से आव०नि० गा०209-312 8. 11. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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