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________________ गणधरवाद सामायिक श्रुत का अधिकारी होता है, वहीं कभी क्रमेण विकास-मार्ग का प्राश्रय लेकर तीर्थंकर बन सकता है और सुने हुए ज्ञान को साक्षात् ज्ञान में परिणत करने के पश्चात् अपना शासन स्थापित करने में सफल होता है तथा जिन प्रवचन को उत्पन्न कर सकता है। इस पद्धति से जिन प्रवचन की उत्पत्ति के सामान्य क्रम का उल्लेख कर, जिन प्रवचन सूत्र तथा अर्थ अर्थात् अनुयोग के पर्याय संगृहीत किए गए हैं जो ये हैं प्रवचन-श्रुत, धर्म, तीर्थ, मार्ग ये पर्यायवाची हैं। सूत्र-तंत्र, ग्रंथ, पाठ, शास्त्र ये पर्यायवाची हैं। अनुयोग-नियोग, भाष्य, विभाषा, वार्तिक ये पर्यायवाची हैं । उपोद्घात अनुयोग तथा अननुयोग का सोदाहरण निक्षेप सहित विवरण करने के बाद भाषा, विभाषा और वार्तिक के भेद दृष्टान्त सहित स्पष्ट किए गए हैं। व्याख्यान विधि का विवेचन करते हुए प्राचार्य तथा शिष्य की योग्यता का सदृष्टान्त निरूपण किया गया है। इतनी प्रासंगिक चर्चा करने के उपरान्त प्राचार्य सामायिक अध्ययन के उपोद्घात की रचना करते हैं। अर्थात् उन्होंने सामायिक सम्बन्धी कुछ प्रश्न उठाए हैं और उनकी चर्चा द्वारा उन सम्बन्धित विषयों का निरूपण किया है जिनका ज्ञान सामायिक के सूत्र-पाठ की व्याख्या करने से पहले सामान्यतः प्रावश्यक है। आजकल वि.सी भी पुस्तक की प्रस्तावना में जिन बातों की चर्चा आवश्यक होती है, वैसी ही बातों की चर्चा आचार्य ने उपोद्घात में की है जो इस प्रकार हैं : __1. उद्देश-जिसकी व्याख्या करनी हो, उसका सामान्य कथन, जैसे कि, अध्ययन । 2. निर्देश-जिसकी व्याख्या करनी हो उसका विशेष कथन, जैसे कि सामायिक । 3. निर्गम-व्याख्येय वस्तु का निर्गम, सामायिक का आविर्भाव किस से हुआ ? 4. क्षेत्र-उसके क्षेत्र-देश की चर्चा । 5. काल-उसके समय की चर्चा । 6. पुरुष-किस पुरुष से इस वस्तु की प्राप्ति हुई ? 7. कारण चर्चा। 8. प्रत्यय-श्रद्धा की चर्चा। 9. लक्षण चर्चा । 10. नय विचार। 11. समवतार-नयों की अवतारणा। 12. अनुमत-व्यवहार निश्चय की अपेक्षा से विचार। 13. किम्-यह क्या है ? 14. उसके भेद कितने हैं ? 15. किसको है ? 16. कहाँ है ? 17. किसमें है ? 18. किस तरह प्राप्त होती है ? 19. कितने समय स्थिर रहती है ? 20. कितने प्राप्त करते हैं ? 21. विरह काल कितना है ? 22. अविरह काल कितना है ? 23. कितने भव तक प्राप्त करता है ? 24. कितनी बार स्वीकार करता है ? 25. कितने क्षेत्र का स्पर्श करता है ? और 26. निरुक्ति । 1. आव० नि० गा० 130-131 2. आव०नि० गा० 132-134 3. प्राव नि० गा० 135 आव०नि० गा० 136-139 5. पाव०नि० गा० 140-141 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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