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________________ प्रस्तावना 15 पुनश्च भगवान् केवल संक्षेप से ही अर्थ का कथन करते हैं, उस कथन को कुशलता पूर्वक व्यवस्थित सूत्र-ग्रन्थ का रूप प्रदान करना गणधरों का ही कार्य है। इस प्रकार शास्त्रों की प्रवृत्ति शासन के हित के लिए हुई है ।। प्राचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट रूप से शास्त्र-प्रवर्तन का जो यह इतिहास बताया है, वह सभी शास्त्रों के लिए सामान्य है। उन्हें जिन शास्त्रों की नियुक्ति लिखनी थी, वे या तो गणधरों की कृतियाँ हैं अथवा उसके आधार पर लिखी गई रचनाएँ हैं । अतः उन्होने इस तथ्य का कथन आवश्यक नियुक्ति के प्रकरण में ही करना उचित समझा। अंगों में प्राचारांग का क्रम सर्वप्रथम है, तथापि प्राचार्य भद्रबाहु ने गणधर-कृत सम्पूर्ण श्रुत के प्रादि में सामायिक का तथा अन्त में बिन्दुसार का उल्लेख कर लिखा है कि, श्रुत-ज्ञान का सार चारित्र है तथा चारित्र का सार निर्वाण है। आचारांग के स्थान पर सामायिक को प्रथम क्रम देने का कारण यह प्रतीत होता है कि, अंग-ग्रन्थों में भी जहां-जहां भगवान महावीर के श्रमणों के श्रुतज्ञान सम्बन्धी अभ्यास की चर्चा है, वहां अनेक स्थलों पर बताया गया है कि वे अंग-ग्रन्थों से भी पूर्व सामायिक का अध्ययन करते थे। इसीलिए प्राचार्य भद्रबाहु ने केवल गणधर-कृत माने जाने वाले अंगों में आवश्यक सूत्र का समावेश करना उचित माना । कारण यह है कि सामायिक आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन है । इसी प्रसंग पर प्राचार्य ने इस बात का कुछ विस्तार-पूर्वक प्रतिपादन किया है कि, ज्ञान और चारित्र दोनों ही मोक्ष के लिए आवश्यक हैं और अन्त में अन्धे और लगड़े व्यक्तियों के सांख्य-प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा बताया है कि, ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस विषय का यहां उल्लेख इसलिए आवश्यक था कि कुछ लोग क्रिया-जड़ बन कर ज्ञान की आवश्यकता स्वीकार नहीं करते थे और कुछ ज्ञान-गौरव के अभिमान में चूर होकर क्रियाशून्य बन जाते थे । अतः उन्हें यह बताना जरूरी था कि, श्रुत-ग्रन्थों को पढ़ कर भी अन्त में तदनुसार आचरण किए बिना निर्वाण-प्राप्ति की प्राशा करना व्यर्थ है। यह प्रयत्न भी निर्वाणमार्ग के लिए लाभप्रद था । अतः उसको स्वीकार किया गया। तत्पश्चात् सामायिक के अधिकारी के निरूपण के ब्याज से वस्तुतः श्रुत-ज्ञान के अधिकारी का ही निरूपण किया गया है। क्योंकि श्रुत-ज्ञान के अधिकारी के लिए यह आवश्यक है कि, वह सर्वप्रथम सामायिक का ही अध्ययन करे। अधिकारी किस प्रकार क्रमशः विकास की सीढ़ी पर प्रारूढ़ होता है, यह भी उपशम और क्षपक श्रेणी के वर्णन द्वारा प्रतिपादित किया गया है। विकास-मार्ग पर अग्रसर होता हया जीव केवली बनता है और समस्त लोकालोक को जानता है। ऐसे केवली का उपदेश ग्रहण करके ही गणधर शास्त्रों की रचना करते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण विकास-मार्ग का निदर्शन कराकर प्राचार्य के कथन का तात्पर्य यही है कि जो 1. आव. नि० गा० 92 2. आव० नि० गा० 93 3. आव० नि० गा० 94-102 4. आव०नि० गा० 104-127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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