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________________ 14 7. आचारांग नियुक्ति 346 में कहा है कि, उत्तराध्ययन के 'मोक्ष' शब्द की नियुक्ति के समान ही 'विमुक्त' शब्द की व्याख्या समझ लेनी चाहिए। इससे भी ज्ञात होता है कि उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना आचारांग नियुक्ति से पहले हुई । 8. सूत्र० नि० में 'करण' की व्याख्या ( गा० 5--13 ) प्रावश्यक सूत्र ० नि० की गाथा ( 1030 आदि) जैसी ही हैं । यहीं गाथाएँ उत्त० (183 प्रादि) में भी हैं । 9. सूत्र० नि० गा० 99 में कहा है कि 'धर्म' शब्द का निक्षेप पहले लिखा जा चुका है । यह उल्लेख दश० नि० गा० 39 को लक्ष्य में रख कर किया गया है। से पहले दश० नि० की रचना हुई । अतः सूत्र० नि० 10. सूत्र० नि० 127 में कहा है कि 'ग्रन्थ' का निक्षेप पहले आ चुका है। इसमें उत्त० नि० 240 की थोर संकेत है । यतः उत्त० नि० सूत्र० नि० से पहले लिखी गई । नियुक्ति का शब्दार्थ इस प्रकार जितनी नियुक्तियां लिखने की उनकी इच्छा थी, उन सब का एक साथ निर्देश करने के पश्चात् उन्होंने क्रम प्राप्त सामायिकाध्ययन की नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है तथा नियुक्ति शब्द की व्याख्या भी स्पष्ट की हैं । एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । नियुक्ति का प्रयोजन यह है कि, वह इस बात की शोध करे कि कौनसा अर्थ अधिक उपयुक्त है, श्रथवा भगवान् के उपदेश के समय सर्वप्रथम अमुक शब्द के साथ कौन-सा अर्थ सम्बद्ध था । इस शोध के अनन्तर नियुक्ति सूत्र के शब्दों के साथ उस अर्थ की उपपत्ति का निश्चय करती है । इस प्रयोजन की सिद्धि के लिये अनिवार्य है कि, नियुक्ति में सर्वत्र निक्षेप पद्धति का आश्रय लिया जाए। ग्रतः आचार्य जिस शब्द की व्याख्या करना चाहते हैं, सब से पहले वे उसके निक्षेपों के सम्भावित अर्थों की योजना करते हैं और फिर अप्रस्तुत अर्थ का निराकरण कर प्रस्तुत अर्थ को सूत्रों के शब्दों के साथ सम्बद्ध करते हैं । नियुक्ति का लक्षण लिखने के उपरान्त आचार्य ने एक सुन्दर रूपक द्वारा यह वर्णन किया है कि, जैन शास्त्रों का उद्भव कैसे हुआ ? " ग्रमित ज्ञानी तप-नियम ज्ञान रूप वृक्ष पर श्रारूढ होकर भव्यजनों के बोध के उद्देश्य से ज्ञान की वृष्टि करते हैं । गणधर उसे सम्पूर्णतः अपने बुद्धिपट में धारण करते हैं। फिर वे प्रवचन के निमित्त तीर्थंकर - भाषित की माला का गूंथन करते हैं । "2 गणधरवाद भगवान् के उपदेश को सूत्रबद्ध अथवा ग्रन्थबद्ध करने का यह लाभ है कि, जिन व्यक्तियों ने भगवान् का उपदेश न सुना हो, ग्रथवा जो सुन कर भी सम्पूर्ण विषय को स्मृतिपट में न रख सके हों, वे इन ग्रन्थों का प्राश्रय लेकर भगवान् के उपदेश को सरलता पूर्वक ग्रहण कर सकते हैं, उसका अभ्यास कर सकते हैं तथा उसे धारण कर सकते हैं । इसी उद्देश्य गणधर प्रवचन-माला गूंथते हैं । 1. ग्राव० नि० गा० 88 2. 3. प्राव० नि० गा० 89-90 आव० नि० गा० 91 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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