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________________ प्रस्तावना 13 वंश को नमस्कार किया है, और भद्रबाहु ने यह प्रतिज्ञा की है कि, इन्होंने श्रुत का जो अर्थ बताया है, वे उसकी नियुक्ति अर्थात् श्रुत के साथ अर्थ की योजना करेंगे। उन्होंने प्रारम्भ में यह भी संकेत कर दिया है कि, वे कौन-कौन से श्रुत के अर्थ की योजना करने का विचार रखते हैं। उन शुतों के नाम ये हैं-1. प्रावश्यक, 2. दशवकालिक, 3. उत्तराध्ययन, 4. प्राचारांग, 5. सूत्रकृतांग, 6. दशाश्रुतस्कन्ध,3 7. कल्प-वृहत्-कल्प, 8. व्यवहार, 9. सूर्यप्रज्ञप्ति, 10. ऋषिभाषित । रचना-क्रम मेरा अनुमान है कि उन्होंने जिस कम से आवश्यक नियुक्ति में ग्रन्थों का उल्लेख किया है, उसी क्रम से उनकी-नियुक्तियों की रचना की होगी। इस बात का समर्थन निम्न लिखित कतिपय प्रमाणों से होता है : 1. उत्तराध्ययन नियुक्ति में 'विनय' की नियुक्ति करते हुए कहा गया है कि, इस विषय में पहले लिखा जा चुका है, यह बात दशवकालिक के 'विनय समाधि' नामक अध्ययन की नियुक्ति को लक्ष्य में रखकर लिखी गयी है । इससे सिद्ध होता है कि, उत्तराध्ययन नियुक्ति से पहले दशवकालिक नियुक्ति की रचना हो चुकी थी। 2. 'कामा पुव्वुद्दिट्ठा'- उत्तराध्ययन नियुक्ति गा० 208 से संकेत किया है कि, काम के विषय में पहले विवेचन हो चुका है। यह दशकालिक नियुक्ति 161 में है। अतः उत्तराध्ययन नियुक्ति से पहले दशवैकालिक नियुक्ति की रचना हुई। 3. उत्तराध्ययन नियुक्ति की-100वीं गाथा आवश्यक नियुक्ति में से वैसी की वैसी उद्धरित की गई है (प्रावश्यक नियुक्ति 1279)। 4. आवश्यक नियुक्ति में निह्नववाद सम्बन्धी जो गाथाएँ हैं (778 से) वे सभी सामान्यतः उसी रूप में उत्तराध्ययन में ली गई हैं, (नि० गा० 164 से)। इससे और आवश्यक नियुक्ति के प्रारम्भ की प्रतिज्ञा से भी सिद्ध होता है कि, उत्तराध्ययन नियुक्ति से पहले आवश्यक नियुक्ति बन चुकी थी। 5. प्राचारांग नियुक्ति 5 में कहा है कि 'प्राचार' और 'अंग' के निक्षेप का कथन पहले हो चुका है। इससे दशवकालिक नियुक्ति तथा उत्तराध्ययन नियुक्ति की रचना आचारांग नियुक्ति से पहले सिद्ध होती है। कारण यह है कि, दशवकालिक के क्षुल्लिकाचार अध्ययन को नियुक्ति में 'प्राचार' की तथा उत्तराध्ययन के 'चतुरंग' अध्ययन की नियुक्ति में 'अंग' की जो नियुक्ति की गई है, प्राचार्य ने उसी का उल्लेख किया है। 6. इसी प्रकार आचारांग नियुक्ति 176 में कहा है कि 'लोगो भणियो' । इसमें भी आवश्यक नियुक्ति के 'लोगस्स' पाठ की नियुक्ति का निर्देश है। 1. आव०नि० गा० 82 2. आव०नि० गा० 83 3. आव० नि० गा० 84-86 4. उत्त० नि० 29 ‘विणनो पुबुद्दिट्ठो' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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