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________________ 12 आवश्यक नियुक्ति सामान्य क्रम वैसा ही है जैसा कि ऊपर प्रतिपादित किया गया है तथापि आवश्यक निर्युक्ति उनकी सर्वप्रथम नियुक्ति है, अतः उसमें कुछ विशेषताएँ दृग्गोचर होती हैं । इस नियुक्ति में उस विशेषता को इसलिए स्थान दिया गया है कि वह सभी नियुक्तियों के लिए उपयोगी सिद्ध हो तथा उसकी पुनरावृत्ति न करनी पड़े । भारतीय संस्कार के अनुसार शुभ कार्य का प्रारम्भ मंगल से होता है । अत: प्राचार्य भद्रबाहु ने भी प्रावश्यक नियुक्ति में पांच ज्ञान रूप नन्दी मंगल की विस्तारपूर्वक व्याख्या कर मंगलाचरण किया है। साथ ही उन्होंने यह भी संकेत किया है कि जैन धर्म के अनुसार किसी भी व्यक्ति की अपेक्षा गुण की महत्ता अधिक है । पीठिका -बन्ध स्वरूप (प्रस्तावना रूप ) इस मंगल कार्य को करने के बाद आचार्य ने अन्त में लिखा है कि, इन पांच ज्ञानों में श्रुतज्ञान का ही अधिकार प्रस्तुत है, क्योंकि यही एक ऐसा ज्ञान है जो दीपक के समान स्व पर प्रकाशक है । अतः श्रुतज्ञान के द्वारा ही अन्य मत्यादि ज्ञानों का और स्वयं श्रुत का भी निरूपण हो सकता है | 2 इतनी पीठिका बनाकर उन्होंने उपोद्घात की रचना के लिए कुछ प्रासंगिक बातें लिखी हैं । उसमें उन्होंने सर्वप्रथम सामान्य रूप से सभी तीर्थंकरों को नमस्कार करने के बाद भगवान् महावीर को नमस्कार किया है, क्योंकि उनका तीर्थ - शासन ग्राजकल प्रवर्तमान है । भगवान् महावीर के उपदेश को धारण कर जिन्होंने प्रथम वाचना दी, उन प्रवाचक गणधरों को नमस्कार करके गुरु परम्परा रूप गणधरवंश आचार्यवंश तथा प्रध्यापक-परम्परा रूप वाचक वंश - उपाध्याय 1. 2. गणधरवाद प्राकृत पद 'नन्दी' को संस्कृत में 'नान्दी' कहते हैं। नाटकों के प्रारम्भ में सूत्रधार द्वारा किए गए मंगलपाठ को नान्दी कहा जाता है । नाटकों में यह उल्लेख उपलब्ध होता है कि 'नान्यन्ते सूत्रधारः' । इसका भाव यही है कि, मंगलाचरण करने के पश्चात सूत्रधार आगे की प्रवृत्ति का प्रारम्भ करता है । मंगल करना जनसाधारण की सामान्य प्रवृत्ति है । कहीं किसी पाठरूप में और कहीं पुष्प, अक्षत आदि द्रव्यार्पण रूप में । अनेक प्रकार का मंगलाचरण माना जाता है। शास्त्र के प्रारम्भ में देवस्तुति, नमस्कार आदि के रूप में भी मंगलानुष्ठान होता है । आध्यात्मिक दृष्टि से जैन परम्परा शुद्ध गुण की पूजक और उपासक रही है । आध्यात्मिक गुणों में ज्ञान का स्थान सर्वोपरि है । ज्ञान सर्वगम्य वस्तु है और वह चारित्र का अंतरंग कारण भी है । इसीलिए ही शास्त्र में ज्ञान का वर्णन और वर्गीकरण मंगलरूप में भी किया गया है। जैन परम्परा में मंगल शब्द का व्यवहार भी प्रति प्राचीन काल से होता रहा है । दशवैकालिक जैसे प्राचीन श्रागम में 'धम्मो मंगलमुक्nिg" का प्रयोग है ! ऐसा प्रतीत होता है कि, जब नाटक खेलने और लिखने की प्रवृत्ति अधिक लोकप्रिय होती गई और उसमें मंगलसूचक नान्दी शब्द का प्रयोग सर्वसाधारण हो गया तब जैन ग्रन्थकारों ने भी इस शब्द का मंगल अर्थ दृष्टि से स्वाभिप्रेत ज्ञान गुण को मंगलरूप प्रगट करने के लिए प्रयोग कर प्राध्यात्मिक इसका उपयोग किया । इसी भावना के कारण ज्ञानों का वर्णन करने वाला शास्त्र 'नन्दी' नाम से प्रसिद्ध हुआ । आव० नि० गा० 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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